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शुक्रवार, मई 23, 2025

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्

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Dakshinamurthy Stotram In Hindi

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् एक अत्यंत महत्वपूर्ण वैदिक स्तोत्र है, जिसकी रचना आदि शंकराचार्य जी ने की थी। यह स्तोत्र भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप की स्तुति करता है, जो ज्ञान, विवेक और आत्म-साक्षात्कार के अधिष्ठाता देवता माने जाते हैं। दक्षिणामूर्ति को गुरु स्वरूप भी कहा जाता है, जो बिना किसी शब्दों के मौन द्वारा शिष्यों को अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्रदान करते हैं।

|| दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् ||

मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं
वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणैः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥१॥

वटविटपिसमीपेभूमिभागे निषण्णं
सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं
जननमरणदुःखच्छेद दक्षं नमामि ॥२॥

चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः ॥३॥

निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् ।
गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ॥४॥

ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये ।
निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ॥५॥

चिद्घनाय महेशाय वटमूलनिवासिने ।
सच्चिदानन्दरूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥६॥

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद् व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥७॥

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥

बीजस्याऽन्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्गनिर्विकल्पं पुनः
मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥

यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥

नानाच्छिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभा भास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा वहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणे
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥

बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रयाभद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥

विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥

भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशु पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्
नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥

सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ॥१०॥

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् का महत्व

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् को अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों का सार कहा जाता है। यह स्तोत्र व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करता है और माया से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है। इस स्तोत्र के अध्ययन से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है और अज्ञान का नाश होता है।

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् केवल एक स्तुति मात्र नहीं है, बल्कि यह अद्वैत वेदांत का मूल सार प्रस्तुत करता है। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करता है और यह समझाने का प्रयास करता है कि संपूर्ण संसार माया का खेल है, वास्तविकता केवल आत्मा है। जो भी साधक इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक अध्ययन और मनन करता है, उसे आत्मज्ञान प्राप्त होने में सहायता मिलती है।
“ज्ञानम शिवम अद्वैतं दक्षिणामूर्तये नमः।”

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