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दक्षिणामूर्ति स्तोत्र सूतसंहिता

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दक्षिणामूर्ति स्तोत्र सूतसंहिता Dakshinamurthy Stotram

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र एक प्रमुख हिन्दू स्तोत्र है जो भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप की महिमा का वर्णन करता है। दक्षिणामूर्ति को ज्ञान, शिक्षा, और आत्मबोध के देवता के रूप में पूजा जाता है। वे गुरु के रूप में माने जाते हैं और अपने भक्तों को आत्मज्ञान प्रदान करते हैं। इस स्तोत्र का उल्लेख प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में किया गया है, जिसमें प्रमुख रूप से सूतसंहिता एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

सूतसंहिता के संदर्भ में, यह ग्रंथ स्कंदपुराण का एक अंग है। स्कंदपुराण हिन्दू धर्म का एक विशाल पुराण है, जिसमें कई सूक्त, मंत्र और कथाएँ वर्णित हैं। इसमें भगवान शिव और उनके विभिन्न रूपों की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। सूतसंहिता को विशेषतः तंत्र और योग के पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जाना जाता है। इसमें दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति रूप का बखान करता है, जो एक गुरु और शिक्षक के रूप में अपने शिष्यों को सत्य का बोध कराते हैं।

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का महत्व: Importance of Dakshinamurthy Stotra:

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यह स्तोत्र शिष्य और गुरु के बीच के आध्यात्मिक संबंध को स्पष्ट करता है। दक्षिणामूर्ति की विशेषता यह है कि वे मौन (मौन गुरु) रहकर ही अपने शिष्यों को आत्मज्ञान प्रदान करते हैं। उनके चार शिष्य—सनक, सनन्दन, सनातन, और सनतकुमार—इनके प्रतीक हैं, जिन्हें वे मौन में ही ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं।

इस स्तोत्र में भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति रूप का ध्यान करते हुए उनकी उपासना की जाती है। दक्षिणामूर्ति को आमतौर पर एक योगी के रूप में दर्शाया जाता है, जो एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। उनके एक हाथ में ज्ञानमुद्रा (ज्ञान की मुद्रा) होती है, जबकि दूसरा हाथ शिष्य को ज्ञान की ओर इंगित करता है।

सूतसंहिता में दक्षिणामूर्ति स्तोत्र: Dakshinamurti Stotra in Sutasamhita:

सूतसंहिता में इस स्तोत्र का उल्लेख उनके गुरु स्वरूप और आत्मज्ञान के संदर्भ में किया गया है। इसमें कहा गया है कि जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से इस स्तोत्र का जाप करता है, उसे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और वह अज्ञान के अंधकार से निकलकर आत्मज्ञान के प्रकाश में प्रवेश करता है।

सूतसंहिता दक्षिणामूर्ति स्तोत्र के साथ-साथ तंत्र विद्या, योग और ध्यान की विधियों का भी विस्तार से वर्णन करती है। यह विशेषकर उन साधकों के लिए उपयोगी है जो शिव तत्त्व को समझना चाहते हैं और ध्यान के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र के श्लोक: Verses of Dakshinamurthy Stotra:

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में कुल 10 प्रमुख श्लोक होते हैं, जिनमें भगवान शिव के गुणों, उनकी शिक्षाओं और उनके गुरु स्वरूप का गुणगान किया गया है। इन श्लोकों का पाठ करने से साधक को ज्ञान, शांति और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त होती है। इन श्लोकों में भगवान शिव की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे ही सच्चे गुरु हैं, जो अपने शिष्यों को जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझाते हैं।

स्तोत्र का फल:

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र के नियमित पाठ से व्यक्ति के जीवन में ज्ञान और समझ की वृद्धि होती है। इसे विशेषकर उन लोगों के लिए फलदायक माना जाता है जो आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं और जीवन के सत्य को समझने की इच्छा रखते हैं। सूतसंहिता में इसका पाठ करने वाले को भगवान शिव की कृपा से सभी बाधाओं का नाश होता है और अंततः मोक्ष की प्राप्ति होती है।

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र सूतसंहिता Dakshinamurthy Stotram

प्रलंबितजटाबद्धं चन्द्ररेखावतंसकम् ।
नीलग्रीवं शरच्चन्द्रिकाभिर्विराजितम् ॥१॥

गोक्षीरधवलाकारं चन्द्रबिंबसमाननम् ।
सुस्मितं सुप्रसन्नं च स्वात्मतत्त्वैकसंस्थितम् ॥२॥

गङ्गाधरं शिवं शान्तं लसत्केयूरमण्डितम् ।
सर्वाभरणसंयुक्तं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥३॥

वीरासने समासीनं वेदयज्ञोपवीतिनम् ।
भस्मधाराभिरामं तं नागाभरणभूषितम् ॥४॥

व्याघ्रचर्माम्बरं शुद्धं योगपट्टावृतं शुभम् ।
सर्वेषां प्राणिनामात्मज्ञापस्मारपृष्टतः ॥५॥

विन्यस्तचरणं सम्यग् ज्ञानमुद्राधरं हरम् ।
सर्वविज्ञानरत्नानं कोशभूतं सुपुस्तकम् ॥६॥

दधानं सर्वतत्त्वाक्षमालिकां कुण्डिकामपि ।
स्वात्मभूतपरानन्दपरशक्त्यर्ध विग्रहम् ॥७॥

धर्मरूपवृषोपेतं धार्मिकैर्वेदपारगैः ।
मुनिभिस्संऋतं मायावटमूलाश्रितं शुभम् ॥८॥

ईशानं सर्वविद्यानामीश्वरेश्वरमव्ययम् ।
उत्पत्त्यादिविनिर्मुक्तं ओङ्कारकमलासनम् ॥९॥

स्वात्मविद्याप्रदानेन सदा संसारमोचकम् ।
रुद्रं परमकारुण्यात्सर्वप्राणिहिते रतम् ॥१०॥

उपासकानां सर्वेषामभीष्टसकलप्रदम् ।
दक्षिणामूर्तिदेवाख्यं जगत्स्वर्गादिकारणम् ॥११।

समागत्य महाभक्त्या दण्डवत्पृथिवीतले ।
प्रणम्य बहुशो देवं समाराध्य यथा बलम् ॥१२॥

रुद्र यत्ते मुखं तेन दक्षिणं पाहि मामिति ।
उक्त्वा पुनः पुनर्देवं पूजयामास भक्तितः ॥१३॥

॥इति सूतसंहितान्तर्गतम् दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् ॥

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