भीषण तम परिपूर्ण निशीथिनि
भीषण तमपरिपूर्ण निशीथिनि, निविड निरर्गल झंझावात ।
नम घनघोर महारव पूरित, विकट, विघाती विद्युत्पात ।।
सागर-बक्ष क्षुब्ध-उल्लोलित, क्षित-क्षितिधर क्षत, कंपितगात ।
प्रलय-शिखा पावक अप्रतिहत त्रिभुवन त्रस्त, सहत अभिघात ||
कैसा यह भीषण वेश ! काँपता जगत्, न कोई शेष !
बचा, हुआ निर्भय, जिसने उस प्रियतमको पहचान लिया’ ।
धन्य वेशधारिन् ! बस, मैंने छिपे हुएको जान लिया’ ।। १ ।।
‘ विस्तृत भति दारिद्रय, रोग- पीड़ित, अपमानित दुःसहनीय ।
त्यक्त-बंधु, जग-हसित, श्रमिततनु, अमित, वेदना दुर्दमनीय ।।
एकमात्र सुत-शव निपतित संमुख प्राणोपम अति कमनीय ।
हा ! हा ! रव रत, विगत शांति-सुख, शोकसरित-गत, नहिं कथनीय ।।
नहिं सुख-स्वप्नका लेश ! निदारुण महाभयानक क्लेश !
आवृत वदन निरखकर जिसने ‘प्रियतमको पहचान लिया’ ।
धन्य बेशधारिन् ! बस, मैंने ‘छिपे हुएको जान लिया’ ।॥ २ ॥
अन्नहीन तन, मृतप्राय मन, वस्त्रामाव अनावृत देह ।
अबला अवलंबनविहीन, नित घृणा, दोषदर्शन, संदेह ।।
स्वजनहीन, अति दीन छीन, जग वैरभावयुत विगतस्नेह ।
दलित, स्खलित, पतित, निष्कासित, देश-जाति-धन-जन-सुत-गेह ।।
रह गया निपट अकेला शेष ! दिगम्बर शुष्क अस्थि अवशेष !
रुद्ररूप दर्शनकर जिसने ‘प्रियतमको पहचान लिया’ ।
रुद्ररूप धन्य वेशधारिन् ! बस, मैंने ‘छिपे हुएको जान लिया ॥ ३ ॥