“रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग का भाग 3, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की अद्भुत काव्य-रचना का वह अंश है जो गुरु परशुराम और कर्ण के संबंधों की भावनात्मक गहराई, समर्पण, और त्याग को दर्शाता है। इस अंश में कर्ण का गुरु के प्रति अगाध प्रेम, सेवा-भावना, और अपनी ब्राह्मण वेशभूषा के पीछे छिपी यथार्थवादी सोच उजागर होती है।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 3 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 3
कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।
वृद्द देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्व होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।
कहते हैं, ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मैरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हट्टी-भर ढाँचा तेरा।
जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।
पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।
ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ, शिलोज्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।

भावार्थ के साथ विस्तृत व्याख्या:
1.
“कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,”
यहाँ कर्ण की गुरु-भक्ति दिखाई जाती है। वह परशुराम के प्रेम में इतना लीन है कि उनके जटा-जूट को सहलाता है, उनकी पीठ को थकान से राहत देने का प्रयास करता है। यह सेवा केवल बाह्य नहीं, आत्मा से उपजी श्रद्धा है।
2.
“चढ़ें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।”
कर्ण पूरी सजगता से अपने गुरुदेव की सेवा में लगा है। वह सुनिश्चित करता है कि गुरु की नींद में कोई बाधा न आए, चाहे वह चींटी हो या सूखे पत्ते। यह दर्शाता है कि कर्ण न केवल शिक्षा ग्रहण कर रहा है, बल्कि गुरुसेवा में भी उत्कृष्ट है।
3.
“वृद्द देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-संचालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।”
यहाँ कर्ण को गुरु की वृद्धावस्था और शारीरिक कष्ट का बोध होता है। परशुराम तप से कृशकाय हो चुके हैं, फिर भी शस्त्र-संचालन जैसे कठिन कार्य सिखा रहे हैं। कर्ण महसूस करता है कि यह सब उसके कारण हो रहा है और उसे अपराधबोध होता है।
4.
“किन्तु, वृद्व होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।”
हालांकि परशुराम वृद्ध हैं, फिर भी उनके शरीर में शक्ति और सेवा भावना बनी हुई है। वे कर्ण को दिन-रात प्रेम और अनुशासन से प्रशिक्षित कर रहे हैं, जिससे उनकी गुरु-ममता प्रकट होती है।
5.
“कहते हैं, ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मैरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?”
परशुराम स्वयं कर्ण से कहते हैं कि यदि तुम ठीक प्रकार से पौष्टिक भोजन नहीं करोगे, तो मेरी दी गई कठोर शिक्षा को कैसे झेल सकोगे? यह एक व्यावहारिक चिंता है, जहाँ आहार और अध्यवसाय का सीधा संबंध बताया गया है।
6.
“अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हट्टी-भर ढाँचा तेरा।”
गुरु चेतावनी देते हैं कि यदि तू मेरे जैसा संन्यासी आहार अपनाएगा, तो शरीर दुर्बल हो जाएगा, केवल हड्डियों का ढाँचा रह जाएगा। यह पंक्ति गुरु की दूरदृष्टि और आत्मीय चिंता को दर्शाती है।
7.
“जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।”
परशुराम अपने प्रशिक्षण की कठोरता को रेखांकित करते हैं। वह बताते हैं कि उनकी शिक्षा इतनी कठिन है कि कर्ण का शरीर एक दिन में पाव भर रक्त जला देता है। यह गुरु की शिक्षा के स्तर और गंभीरता को दर्शाता है।
8.
“इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।”
यह चेतावनी है कि यदि तुम संन्यासी जैसे आहार पर रहोगे, तो यह भूख तुम्हें चबा जाएगी। यानि शारीरिक और मानसिक संतुलन जरूरी है कठोर साधना के लिए।
9.
“पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।”
युवा अवस्था में विजय तभी संभव है जब शरीर मजबूत और साहसी हो, जैसे पत्थर की मांसपेशियाँ और लोहे जैसे भुजदण्ड। यह शिक्षा युद्ध-शिक्षा और आत्मबल का मर्म बताती है।
10.
“विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।”
परशुराम यहाँ ब्राह्मणत्व को लेकर एक व्यावहारिक दृष्टिकोण रखते हैं। कहते हैं कि अभी जवान हो, शरीर को पोषण चाहिए, त्याग की बातें वयस्कता में करना।
11.
“ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ, शिलोज्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?”
यहाँ समाज के दोहरे मापदंड पर सवाल खड़ा किया गया है। क्या त्याग का आदर्श बालकों पर भी लागू होना चाहिए? क्या जन्म लेते ही वे विरक्त हो जाएँ?
12.
“क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।”
दिनकर समाज के वर्ग-भेद की आलोचना करते हैं। ज्ञान ब्राह्मणों के पास, धन वैश्य के पास, और शस्त्र क्षत्रिय के पास। लेकिन यह विभाजन प्राकृतिक नहीं, कृत्रिम है।