शिवापराधक्षमापणस्तोत्रम् Shiva Aparadha Kshamapana Stotram
शिवापराधक्षमापणस्तोत्र भगवान शिव को समर्पित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है, जिसे उनके भक्तों द्वारा अपने अपराधों और गलतियों के लिए क्षमा मांगने के उद्देश्य से पढ़ा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य भगवान शिव के प्रति अपने अपराधों की स्वीकृति और उनके सामने अपने समर्पण को व्यक्त करना है। यह स्तोत्र व्यक्ति को अपनी गलतियों के प्रति विनम्र बनाता है और उसे यह सिखाता है कि भगवान के समक्ष आत्मसमर्पण करके, क्षमा प्राप्त की जा सकती है।
यह स्तोत्र उन लोगों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है जो अपने जीवन में भगवान शिव के प्रति गलतियां या अपराध कर चुके हैं, और उन पर पछतावा करते हैं। इसके श्लोक भगवान शिव के प्रति भक्ति, श्रद्धा, और समर्पण का प्रतीक हैं, जिसमें व्यक्ति अपने दोषों को स्वीकारते हुए क्षमा याचना करता है। स्तोत्र में शिव की महिमा का गुणगान किया जाता है और उनसे अपने अपार धैर्य और करुणा के लिए प्रार्थना की जाती है।
शिवापराधक्षमापणस्तोत्र को आदि शंकराचार्य द्वारा रचित माना जाता है। शंकराचार्य ने इसे इस उद्देश्य से लिखा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के पापों और अपराधों से मुक्त हो सके, और शिव की कृपा प्राप्त कर सके।
इस स्तोत्र के पाठ से निम्नलिखित लाभ माने जाते हैं:
- मन की शुद्धि और आत्मा का शांति अनुभव होता है।
- भगवान शिव की कृपा से जीवन के कष्टों और संकटों से मुक्ति मिलती है।
- आत्म-समर्पण और क्षमा की भावना का विकास होता है।
- जीवन में सरलता, विनम्रता और सदाचार की प्राप्ति होती है।
- पापों का प्रायश्चित करके भगवान शिव की शरण प्राप्त की जा सकती है।
यह स्तोत्र शिवभक्तों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है और विशेष रूप से शिवरात्रि, प्रदोष व्रत, या किसी भी अन्य शिव-पूजन के अवसर पर पढ़ा जाता है। इसके श्लोक भगवान शिव की दयालुता, करुणा और उनके कृपालु स्वभाव की महिमा का बखान करते हैं।
इस स्तोत्र के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि चाहे कोई भी कितनी भी बड़ी गलती क्यों न कर ले, यदि वह सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, तो भगवान शिव उसे अवश्य क्षमा करते हैं।
शिवापराधक्षमापणस्तोत्रम् Shiva Aparadha Kshamapana Stotram Lyrics In Sanskrit
आदौ कर्मप्रसन्ङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं माम्
विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः ।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुम्
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥१॥
बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिताः जन्तवो मां तुदन्ति ।
नानारोगादिदुःखात् रुदनपरवशः शंकरं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥२॥
प्रौढोहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषण्णः ।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥३॥
वार्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः
पापैः रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढिहीनं च दीनम् ।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥४॥
नो शक्यं स्मार्त कर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे ।
नास्था धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥५॥
स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थं वा कदाचित् बहुतरगहनात् खण्डबिल्वीदलानि ।
नानीता पद्ममाला सरसिविकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥६॥
दुग्धैः मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः ।
धूपैः कर्पूरदीपैः विविधरसयुतैः नैव भक्ष्योपहारैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥७॥
ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यम् प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः ।
नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमैः रुद्रजाप्यैर्न वेदैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥८॥
स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये ।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शंकरं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥९॥
नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् ।
उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शंभो ॥१०॥
चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे
सर्पैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थ वैश्वानरे
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥११॥
किं वाऽनेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किंवा पुत्र-कलत्र-मित्र-पशुभिः देहेन गेहेन किम् ।
ज्ञात्वैतत् क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥१२॥
आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनम्
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः ।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितम्
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥१३॥
करचरणकृतं वा कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शंभो ॥१४॥