शुद्ध सच्चिदानंद सनातन अज अक्षर आनंद-सागर
Shuddh Sachchidaanand Sanaatan Aj Akshar Aanand Saagar
शुद्ध, सच्चिदानंद, सनातन, अज, अक्षर, आनंद-सागर ।
अखिल चराचरमें नित ब्यापक, अखिल जगतके उजियागर ।।
बिश्व-मोहिनी मायाके मोहन मनमोहन ! नटनागर ! रसिक श्याम ! मानव-बपु-घारी ! दिव्य, भरे गागर सागर ।। १ ।।
भक्त-भीति-मंजन, जन-रंजन, नाथ निरंजन एक अपार ।
नव-नीरद-श्यामल-सुंदर शुचि, सर्वगुणाकर, सुषमा-सार ।।
भक्तराज वसुदेव-देवकीके सुख-साधन, प्राणाधार निज लीलासे प्रकट हुए अत्याचारी के कारागार ।। २ ।।
पावन दिव्य प्रेम पूरित व्रज- लीला प्रेमीजन-सुखमूल ।
तन-मन-हारिणि बजी बंसरी रसमयकी कालिंदी-कूल ।।
गिरिधर, विविध रूप धर हरिने हर ली विधि-सुरेंद्रकी भूल कंस-केशि-बध, साधु-त्राण कर यादव-कुलके हर दृच्छूल ।। ३ ।।
समरांगण में सखा भक्तके अश्वोंकी कर पकड़ लगाम ।
बने मार्गदर्शक लीलामय प्रेम-सुघोदधि, जन-सुखधाम ||
प्रेमी पार्थव्याजसे सबको करुणाकर लोचन अभिराम शरणागतिका मधुर मनोहर तत्व सुनाया सार्थ ललाम || ४ ||
‘मन्मना भव, भव मन्द्भक्तः, मद्याजी, कर मुझे प्रणाम ।
सत्य शपथयुत कहता हूँ प्रिय सखे ! मुझीमें ले बिश्राम ॥
छोड़ सभी धर्मोको मेरी एक शरण हो जा निष्काम चिंता मत कर, सभी पापसे तुझे छुड़ा दूँगा प्रियकाम ॥ ५ ॥
श्रीहरिके सुखमय मंगलमय प्रण-वाक्योंकी स्मृति कर दीन ! चित्त !
सभी चंचलता तजकर चार चरणमें हो जा लीन !
रसिकबिहारी मुरलीधर, गीतामायकके हो आधीन त्रिभुवनमोहनके अतुलित सौंदर्याम्बुधिका बन जा मीन ॥ ६ ॥