40.7 C
Gujarat
गुरूवार, अप्रैल 24, 2025

भविष्य पुराण

Post Date:

Bhavishya Puran

भविष्य पुराण हिंदू धर्म के 18 प्रमुख पुराणों में से एक है और इसे महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित माना जाता है। यह संस्कृत भाषा में लिखा गया एक ऐसा ग्रंथ है, जिसका नाम “भविष्य” अर्थात् “भविष्यवाणी” होने वाली घटनाओं के वर्णन की ओर इशारा करता है। यह पुराण न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है, बल्कि इसमें इतिहास, ज्योतिष, आयुर्वेद, नीति, और भविष्य में होने वाली घटनाओं का भी उल्लेख है। इसकी विषय-वस्तु और वर्णन शैली इसे अन्य पुराणों से विशिष्ट बनाती है। इस लेख में हम भविष्य पुराण के विभिन्न पहलुओं, इसके संरचना, महत्व और भविष्यवाणियों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

Bhavishya

भविष्य पुराण का परिचय

भविष्य पुराण को हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका नाम इसलिए “भविष्य” रखा गया है, क्योंकि इसमें भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का वर्णन किया गया है। यह पुराण चार मुख्य पर्वों में विभक्त है: ब्रह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व, और उत्तर पर्व। इन पर्वों के अंतर्गत कुल 585 अध्याय हैं, जो विभिन्न विषयों को समेटे हुए हैं। भविष्य पुराण में मूल रूप से लगभग 50,000 श्लोक होने चाहिए थे, लेकिन वर्तमान में केवल 14,000 श्लोक ही उपलब्ध हैं। यह कमी समय के साथ ग्रंथ के संरक्षण और संचरण में आई कठिनाइयों के कारण मानी जाती है।

भविष्य पुराण को “सौर ग्रंथ” भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें सूर्योपासना और सूर्य देव के महत्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अलावा, यह धर्म, सदाचार, कर्मकांड, व्रत, तीर्थ, दान, और सामुद्रिक शास्त्र जैसे विविध विषयों को समाहित करता है। इस पुराण की कथाएं रोचक और प्रभावशाली हैं, जो इसे एक अद्वितीय साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथ बनाती हैं।

भविष्य पुराण की संरचना

भविष्य पुराण को चार मुख्य खंडों या पर्वों में विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार हैं:

  1. ब्रह्म पर्व:
    • इस पर्व में पुराण की शुरुआत महर्षि वेदव्यास के शिष्य सुमंतु और राजा शतानीक के संवाद से होती है।
      • इसमें वेदों और पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, और सोलह संस्कारों का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।
      • सूर्योपासना, गायत्री जप का महत्व, और माता-पिता तथा गुरु की महिमा जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
  2. मध्यम पर्व:
    • यह पर्व तंत्र और कर्मकांड से संबंधित है।
    • इसमें भारतीय संस्कार, सामाजिक व्यवस्था, और शिक्षा प्रणाली का विस्तृत वर्णन है।
    • व्रत और दान से जुड़े विषयों का उल्लेख भी इस खंड में प्रमुखता से किया गया है।
  3. प्रतिसर्ग पर्व:
    • यह पर्व ऐतिहासिक और भविष्यवाणी से संबंधित सामग्री के लिए प्रसिद्ध है।
    • इसमें प्राचीन और मध्यकालीन राजवंशों जैसे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज चौहान, और शिवाजी का उल्लेख है।
    • इसके अलावा, ईसा मसीह के जन्म, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, और ब्रिटिश शासन जैसे आधुनिक इतिहास के तथ्यों का भी वर्णन मिलता है।
    • प्रसिद्ध “वेताल पंचविंशति” (विक्रम-वेताल कथाएं) और “श्री सत्यनारायण व्रत कथा” इसी पर्व में शामिल हैं।
  4. उत्तर पर्व:
    • इसे “भविष्योत्तर पुराण” भी कहा जाता है।
    • इस खंड में विभिन्न हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित व्रत, उत्सव, और दान के माहात्म्य का वर्णन है।
    • यह धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

भविष्यपुराण में सूर्य देवता का वर्णन

भविष्यपुराण एक सौर-प्रधान ग्रंथ है, जिसके अधिष्ठातृ देवता भगवान सूर्य हैं। सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देवता हैं और अपने शास्त्रों के अनुसार पूर्णब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित हैं। द्विजों के लिए प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल की संध्या में सूर्यदेव को अर्घ्य देना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, स्त्रियों और अन्य आश्रमों के लिए भी नियमित सूर्यार्घ्य देने की विधि बताई गई है। आधिभौतिक और आधिदैविक रोग-शोक, संताप आदि सांसारिक दुःखों की निवृत्ति भी सूर्योपासना से तुरंत होती है। अधिकांश पुराणों में शैव और वैष्णव पुराण ही अधिक मिलते हैं, जिनमें शिव और विष्णु की महिमा का विशेष वर्णन होता है, परंतु भगवान सूर्यदेव की महिमा का विस्तृत वर्णन इसी पुराण में मिलता है। यहाँ भगवान सूर्यनारायण को जगत के सृष्टा, पालक और संहारक पूर्णब्रह्म परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्य के महनीय स्वरूप के साथ-साथ उनके परिवार, अद्भुत कथाओं और उपासना पद्धति का वर्णन भी यहाँ मिलता है। उनका प्रिय पुष्प, पूजाविधि, आयुध, व्योम के लक्षण, सूर्य नमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणा की विधि और उसके फल, सूर्य को दीप-दान की विधि और महिमा, सौरधर्म और दीक्षा की विधि आदि का महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ ही सूर्य के विराट स्वरूप, द्वादश मूर्तियों, सूर्यावतार और भगवान सूर्य की रथयात्रा आदि का विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है।

भविष्यपुराण में सूर्य की उपासना और व्रतों का विस्तृत वर्णन

सूर्य की उपासना में व्रतों का विस्तृत वर्णन मिलता है। सूर्यदेव की प्रिय तिथि ‘सप्तमी’ है, इसलिए विभिन्न फलश्रुतियों के साथ सप्तमी तिथि के अनेक व्रतों और उनके उद्यापनों का यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है। कई सौर तीर्थों का भी उल्लेख मिलता है। सूर्योपासना में भावशुद्धि की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया गया है, जो इसकी मुख्य बात है। इसके अतिरिक्त, ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय और अग्नि आदि देवताओं का भी वर्णन है। विभिन्न तिथियों और नक्षत्रों के अधिष्ठातृ देवताओं और उनकी पूजा के फल का भी वर्णन मिलता है। ब्राह्मपर्व में ब्रह्मचारिधर्म, गृहस्थधर्म, माता-पिता और अन्य गुरुजनों की महिमा, उन्हें अभिवादन करने की विधि, उपनयन, विवाह आदि संस्कारों का वर्णन, स्त्री-पुरुषों के सामुद्रिक शुभाशुभ लक्षण, स्त्रियों के कर्तव्य, धर्म, सदाचार और उत्तम व्यवहार की बातें, स्त्री-पुरुषों के पारस्परिक व्यवहार, पञ्चमहायज्ञों का वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धों के विविध भेद, मातृ-पितृ-श्राद्ध आदि उपादेय विषयों पर विशेष रूप से विवेचन हुआ है। इस पर्व में नागपञ्चमी व्रत की कथा का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें नागों की उत्पत्ति, उनके लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, साँप के काटने के लक्षण, उनके विष का वेग और उसकी चिकित्सा आदि का विशिष्ट वर्णन है। इस पर्व की विशेषता यह है कि इसमें व्यक्ति के उत्तम आचरण को ही विशेष प्रमुखता दी गई है। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान, वेदाध्यायी, संस्कारी और उत्तम जाति का क्यों न हो, यदि उसके आचरण श्रेष्ठ नहीं हैं तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। लोक में श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वे ही हैं जो सदाचारी और सत्पथगामी हैं।

भविष्यपुराण में पूजा पद्धति प्रकृति और अलग अलग कर्म का वर्णन

भविष्यपुराण में ब्राह्मपर्व के बाद मध्यमपर्व का आरंभ होता है, जिसमें सृष्टि और सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल लोकों का वर्णन है। ज्योतिश्चक्र और भूगोल का भी वर्णन मिलता है। इस पर्व में नरकगामी मनुष्यों के 26 दोष बताए गए हैं, जिन्हें त्यागकर मनुष्य को शुद्धतापूर्वक इस संसार में रहना चाहिए। पुराणों के श्रवण की विधि और पुराण-वाचक की महिमा का भी वर्णन है। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पुराणों को सुनने से ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्ति मिलती है। जो प्रातः, रात्रि और सायं पवित्र होकर पुराणों का श्रवण करता है, उस पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न होते हैं। इस पर्व में इष्टापूर्तकर्म का निरूपण अत्यंत समारोह के साथ किया गया है। ज्ञानसाध्य और निष्कामभावपूर्वक किए गए कर्म, हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अंतर्वेदी कर्मों में आते हैं। देवताओं की स्थापना और पूजा, कुआँ, पोखरा, तालाब, वृक्षारोपण, देवालय, धर्मशाला, उद्यान आदि लगवाना और गुरुजनों की सेवा करना बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयों के निर्माण की विधि, देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षण, स्थापना, पूजा पद्धति, ध्यान और मंत्रों का विस्तृत विवेचन है। पाषाण, काष्ठ, मृत्तिका, ताम्र, रत्न आदि से बनी उत्तम प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। घर में आठ अंगुल ऊँची मूर्ति का पूजन श्रेयस्कर है। तालाब, पुष्करिणी, वापी और भवन आदि की निर्माण पद्धति, गृहवास्तु प्रतिष्ठा की विधि, और किन देवताओं की पूजा की जाए, इस पर भी प्रकाश डाला गया है। वृक्षारोपण, विभिन्न वृक्षों की प्रतिष्ठा और गोचरभूमि की प्रतिष्ठा का विधान है। जो व्यक्ति छाया, फूल और फल देने वाले वृक्षों का रोपण करता है, वह अपने पितरों को पापों से तारता है और स्वयं महती कीर्ति प्राप्त करता है। जिसे पुत्र नहीं है, उसके लिए वृक्ष ही पुत्र हैं। वृक्षारोपणकर्ता के लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष ही करते हैं और उसे उत्तम लोक प्रदान करते हैं। अश्वत्थ वृक्ष का आरोपण एक लाख पुत्रों से बढ़कर है। अशोक वृक्ष लगाने से शोक नहीं होता। बिल्व वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है। अन्य वृक्षों के रोपण की फलश्रुतियाँ भी हैं। सभी माङ्गलिक कार्य निर्विघ्न संपन्न हों और शांति बनी रहे, इसके लिए ग्रह-शांति और शांति प्रद अनुष्ठानों का भी वर्णन है।

Bhavishya1 1

भविष्यपुराण में कर्मकाण्ड का विस्तृत वर्णन

भविष्यपुराण के इस पर्व में कर्मकाण्ड का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें विविध यज्ञों का विधान, कुण्ड-निर्माण की योजना, भूमि-पूजन, अग्नि स्थापना एवं पूजन, यज्ञादि कर्मों के मण्डल-निर्माण का विधान, कुशकण्डिका-विधि, होमद्रव्यों का वर्णन, यज्ञपात्रों का स्वरूप और पूर्णाहुति की विधि, यज्ञादि कर्मों में दक्षिणा का महत्व और कलश स्थापना आदि विधि-विधानों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य बिना दक्षिणा और परिमाण के नहीं करना चाहिए। ऐसा यज्ञ कभी सफल नहीं होता। जिस यज्ञ का जो माप बताया गया है, उसी के अनुसार करना चाहिए।

इस क्रम में क्रौञ्च आदि पक्षियों के दर्शन का विशेष फल भी वर्णित हुआ है। मयूर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च और कपिका का घर में, खेत में और वृक्ष पर दर्शन हो जाए तो उन्हें नमस्कार करना चाहिए। ऐसा करने से दर्शक के अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके दर्शन मात्र से धन तथा आयु की वृद्धि होती है। भविष्यपुराण के इस पर्व में कर्मकाण्ड का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें विविध यज्ञों का विधान, कुण्ड-निर्माण की योजना, भूमि-पूजन, अग्नि स्थापना एवं पूजन, यज्ञादि कर्मों के मण्डल-निर्माण का विधान, कुशकण्डिका-विधि, होमद्रव्यों का वर्णन, यज्ञपात्रों का स्वरूप और पूर्णाहुति की विधि, यज्ञादि कर्मों में दक्षिणा का महत्व और कलश स्थापना आदि विधि-विधानों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य बिना दक्षिणा और परिमाण के नहीं करना चाहिए। ऐसा यज्ञ कभी सफल नहीं होता। जिस यज्ञ का जो माप बताया गया है, उसी के अनुसार करना चाहिए।

इस क्रम में क्रौञ्च आदि पक्षियों के दर्शन का विशेष फल भी वर्णित हुआ है। मयूर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च और कपिका का घर में, खेत में और वृक्ष पर दर्शन हो जाए तो उन्हें नमस्कार करना चाहिए। ऐसा करने से दर्शक के अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके दर्शन मात्र से धन तथा आयु की वृद्धि होती है।

भविष्यपुराण में सत्यनारायण व्रत कथा महात्मय और पूजन विधि

भारत में सत्यनारायण व्रत कथा अत्यंत लोकप्रिय है और इसका प्रसार-प्रचार भी बहुत अधिक है। भारतीय सनातन परंपरा में किसी भी माङ्गलिक कार्य का आरंभ भगवान गणपति के पूजन से और उस कार्य की पूर्णता भगवान सत्यनारायण की कथा श्रवण से मानी जाती है। भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व में भगवान सत्यनारायण व्रत कथा का उल्लेख छः अध्यायों में मिलता है। यह कथा स्कन्दपुराण की प्रचलित कथा से मिलती-जुलती होने पर भी विशेष रोचक और श्रेष्ठ प्रतीत होती है। वास्तव में इस मायामय संसार की वास्तविक सत्ता तो है ही नहीं ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।’ परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित सत्य हैं और एकमात्र वही ध्येय, ज्ञेय और उपास्य हैं। ज्ञान, वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने योग्य हैं। वस्तुतः सत्यनारायण व्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा की आराधना से ही है। निष्काम उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है। अतः श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पूजन, कथा श्रवण और प्रसाद आदि के द्वारा उन सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान सत्यनारायण की उपासना से लाभ उठाना चाहिए।

इस खण्ड के अंतिम अध्यायों में पितृशर्मा और उनके वंश में उत्पन्न होने वाले व्याडि, मीमांसक, पाणिनि और वररुचि आदि की रोचक कथाएँ मिलती हैं। इस प्रकरण में ब्रह्मचारिधर्म की विभिन्न व्याख्याएँ करते हुए यह कहा गया है कि ‘जो गृहस्थधर्म में रहते हुए पितरों, देवताओं और अतिथियों का सम्मान करता है और इन्द्रिय संयमपूर्वक ऋतुकाल में ही भार्या का उपगमन करता है, वही मुख्य ब्रह्मचारी है। पाणिनि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सदाशिव शंकर ने ‘अ इ उण्’, ‘ऋलू क्’ आदि चतुर्दश माहेश्वर सूत्रों को वर रूप में प्रदान किया। जिसके कारण उन्होंने व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर महान लोकोपकार किया। तदनंतर बोपदेव के चरित्र का प्रसंग तथा श्रीमद्भागवत के माहात्म्य का वर्णन, श्रीदुर्गासप्तशती के माहात्म्य में व्याधकर्म की कथा, मध्यमचरित्र के माहात्म्य में कात्यायन तथा मगध के राजा महानन्द की कथा और उत्तरचरित की महिमा के प्रसंग में योगाचार्य महर्षि पतञ्जलि के चरित्र का रोचक वर्णन हुआ है।

भविष्यपुराण में कलियुगमें उत्पन्न आन्ध्रवंशीय राजाओंके वंश का परिचय

प्रतिसर्गपर्वका अन्तिम चतुर्थ खण्ड है, जिसमें सर्वप्रथम कलियुगमें उत्पन्न आन्ध्रवंशीय राजाओंके वंशका परिचय मिलता है। तदनन्तर राजपूताना तथा दिल्ली नगरके राजवंशोंका इतिहास प्राप्त होता है। राजस्थानके मुख्य नगर अजमेरकी कथा मिलती है। अजन्मा (अज) ब्रह्माके द्वारा रचित होने तथा माँ लक्ष्मी (रमा) के शुभागमनसे रम्य या रमणीय इस नगरीका नाम अजमेर हुआ। इसी प्रकार राजा जयसिंहने जयपुरको बसाया, जो भारतका सर्वाधिक सुन्दर नगर माना जाता है। कृष्णवर्माके पुत्र उदयने उदयपुर नामक नगर बसाया, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य आज भी दर्शनीय है। कान्यकुब्ज नगरकी कथा भी अद्भुत है। राजा प्रणयकी तपस्यासे भगवती शारदा प्रसन्न होकर कन्यारूपमें वेणुवादन करती हुई आती हैं। उस कन्याने वरदानरूपमें यह नगर राजा प्रणयको प्रदान किया, जिस कारण इसका नाम ‘कान्यकुब्ज’ पड़ा। इसी प्रकार चित्रकूटका निर्माण भी भगवतीके प्रसादसे ही हुआ। इस स्थानकी विशेषता यह है कि यह देवताओंका प्रिय नगर है, जहाँ कलिका प्रवेश नहीं हो सकता। इसीलिये इसका नाम ‘कलिंजर’ भी कहा गया है। इसी प्रकार बंगालके राजा भोगवमकि पुत्र कालिवमनि महाकालीकी उपासना की। भगवती कालीने प्रसन्न होकर पुष्पों और कलियोंकी वर्षा की, जिससे एक सुन्दर नगर उत्पत्र हुआ जो कलिकातापुरी (कलकता) के नामसे प्रसिद्ध हुआ। चारों वर्णकि उत्पत्तिकी कथा तथा चारों युगोंमें मनुष्योंकी आयुका निरूपण और फिर आगे चलकर दिल्ली नगरपर पठानोंका शासन, तैमूरलंगके द्वारा भारतपर आक्रमण करने और लूटनेकी क्रियाका वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है।

भविष्यपुराण में आचार्यों-संतों और भक्तोंकी कथाएँ

श्रीशंकराचार्य, श्रीरामानन्दाचार्य, निम्बादित्य, श्रीधरस्वामी, श्रीविष्णुस्वामी, वाराहमिहिर, भट्टोजि दीक्षित, धन्वन्तरि, कृष्णचैतन्यदेव,श्रीरामानुज, श्रीमध्व एवं गोरखनाथ आदिका विस्तृत चरित्र यहाँ वर्णित है। प्रायः ये सभी सूर्यके तेज एवं अंशसे ही उत्पत्र बताये गये हैं। भविष्यपुराणमें इन्हें द्वादशादित्यके अवतारके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। कलियुगमें धर्मरक्षार्थ इनका आविर्भाव होता है। विभिन्त्र सम्प्रदायोंकी स्थापनामें इनका योगदान है। इन प्रसंगोंमें प्रमुखता चैतन्य महाप्रभुको दी गयी है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि श्रीकृष्णचैतन्यने ब्रह्मसूत्र, गीता या उपनिषद् किसीपर भी साम्प्रदायिक दृष्टिसे भाष्यकी रचना नहीं की थी और न किसी सम्प्रदायकी ही अपने समयमें स्थापना की थी। उदार-भावसे नाम और गुणकीर्तनमें विभोर रहते थे। भगवान् जगत्राथके द्वारपर ही खड़े होकर उन्होंने अपनी जीवनलीलाको श्रीविग्रहमें लीन कर दिया। साथ ही यहाँ संत सूरदासजी, तुलसीदासजी, कबीर, नरसी, पीपा, नानक, रैदास, नामदेव, रंकण, धन्ना भगत आदिकी कथाएँ भी हैं। आनन्द, गिरी, पुरी, वन, आश्रम, पर्वत, भारती एवं नाथ आदि दस नामी साधुओंकी व्युत्पत्तिका कारण भी लिखा है। भगवती महाकाली तथा ढुण्डिराजकी उत्पत्तिकी कथा भी मिलती है।

भगवान् गणपतिको यहाँ परब्रह्मरूपमें चित्रित किया गया है। भूतभावन सदाशिवकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती पार्वतीके पुत्ररूपमें जन्म लेनेका उन्हें वर प्रदान किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान् शिवके पुत्ररूपमें अवतार धारण किया। इसमें रावण एवं कुम्भकर्णक जन्मकी कथा, रुद्रावतार श्रीहनुमान्‌जीकी रोचक कथा भी मिलती है। कैसरीकी पत्नी अंजनीके गर्भसे श्रीहनुमत्‌लालजी अवतार धारण करते हैं। आकाशमें उगते हुए लाल सूर्यको देख फल समझकर उसे निगलनेका प्रयास करते हैं। सूर्यके अभावमें अन्धकार देखकर इन्द्रने उनकी हनु (ठुड्डी) पर वज्रसे प्रहार किया, जिससे हनुमान्‌की ठुड्डी टेढ़ी हो जाती है और वे पृथ्वीपर गिर पड़ते – है, जिससे उनका नाम हनुमान् पड़ा। इसी बीच रावण उनकी – पूँछ पकड़कर लटक जाता है। फिर भी उन्होंने सूर्यको नहीं – छोड़ा। एक वर्षतक रावणसे युद्ध होता रहा। अन्तमें रावणके पिता विश्रवा मुनि वहाँ आते हैं और वैदिक स्तोत्रोंसे हनुमान्‌जीको प्रसत्रकर रावणका पिण्ड छुड़ाते हैं।

इस पुराणका अन्तिम पर्व है उत्तरपर्व। उत्तरपर्वमें मुख्य रूपसे व्रत, दान और उत्सवोंके वर्णन प्राप्त होते हैं। व्रतोंकी अद्भुत श्रृङ्खलाका प्रतिपादन यहाँ हुआ है। प्रत्येक तिथियों, मासों एवं नक्षत्रोंके व्रतों तथा उन तिथियों आदिके अधिष्ठात्- देवताओंका वर्णन, व्रतकी विधि और उसकी फलश्रुतियोंका बड़े विस्तारसे प्रतिपादन किया गया है।

भविष्यपुराण में पर्वमें अनेक व्रतोंकी कथा

इस पर्व में अनेक व्रतों की कथा, माहात्म्य, विधान और फलश्रुतियों का वर्णन किया गया है। साथ ही व्रतों के उद्यापन की विधि भी बताई गई है। प्रत्येक तिथि में कई व्रतों का विधान है। जैसे प्रतिपदा तिथि में तिलकव्रत, अशोकव्रत, कोकिलाव्रत, बृहत्तपोन्नत आदि का वर्णन हुआ है। इसी प्रकार जातिस्मर भद्रव्रत, यमद्वितीया, मधूकतृतीया, हरकालीव्रत, अवियोगतृतीयाव्रत, उमामहेश्वरव्रत, सौभाग्यशयन, अनन्ततृतीया, रसकल्याणिनी तृतीयाव्रत और अक्षयतृतीया आदि अनेक व्रत तृतीया तिथि में ही वर्णित हैं। इसी प्रकार गणेशचतुर्थी, श्रीपञ्चमीव्रत-कथा, विशोक-षष्ठी, कमलषष्ठी, मन्दार-षष्ठी, विजया-सप्तमी, मुक्ताभरण-सप्तमी, कल्याण-सप्तमी, शर्करा-सप्तमी, शुभ-सप्तमी और अचला सप्तमी आदि अनेक सप्तमी-व्रतों का वर्णन हुआ है। तदनंतर बुधाष्टमी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, दूर्वा की उत्पत्ति और दूर्वाष्टमी, अनघाष्टमी, श्रीवृक्षनवमी, ध्वजनवमी, आशादशमी आदि व्रतों का निरूपण हुआ है। द्वादशी तिथि में तारकद्वादशी, अरण्यद्वादशी, गोवत्सद्वादशी, देवशयनी और देवोत्थानी द्वादशी, नीराजनद्वादशी, मल्लद्वादशी, विजय-श्रवणद्वादशी, गोविन्दद्वादशी, अखण्डद्वादशी, धरणीव्रत (वाराहद्वादशी), विशोकद्वादशी, विभूतिद्वादशी, मदनद्वादशी आदि अनेक द्वादशी व्रतों का निरूपण हुआ है। त्रयोदशी तिथि के अंतर्गत अबाधकव्रत, दौर्भाग्य-दौर्गन्ध्यनाशकव्रत, धर्मराज का समाराधन-व्रत (यमादर्शन-त्रयोदशी), अनङ्गत्रयोदशीव्रत का विधान और उसके फल का वर्णन किया गया है। चतुर्दशी तिथि में पालीव्रत और रम्भा (कदली) व्रत, शिवचतुर्दशीव्रत में महर्षि अङ्गिरा का आख्यान, अनन्त चतुर्दशीव्रत, श्रवणिका व्रत, नक्तव्रत, फलत्याग-चतुर्दशीव्रत आदि विभिन्न व्रतों का निरूपण हुआ है। तदनंतर अमावस्या में श्राद्ध-तर्पण की महिमा का वर्णन, पूर्णमासी-व्रतों का वर्णन, जिसमें वैशाखी, कार्तिकी और माघी पूर्णिमा की विशेष महिमा का वर्णन, सावित्रीव्रत-कथा, कृत्तिका व्रत के प्रसंग में रानी कलिंगभद्रा का आख्यान, मनोरम-पूर्णिमा और अशोक पूर्णिमा की व्रत विधि आदि विभिन्न व्रतों और आख्यानों का वर्णन किया गया है।

तिथियों के व्रतों के निरूपण के बाद, नक्षत्रों और मासों के व्रत कथाओं का वर्णन किया गया है। अनन्तव्रत माहात्म्य में कार्तवीर्य के आविर्भाव का वृत्तांत आया है। मास-नक्षत्र व्रत के माहात्म्य में साम्भरायणी की कथा, प्रायश्चित्त रूप सम्पूर्ण व्रत का विधान, वृन्ताक (बैगन) त्याग व्रत और ग्रह-नक्षत्र व्रत की विधि, शनैश्चर व्रत में महामुनि पैप्पलाद का आख्यान, संक्रांति व्रत के उद्यापन की विधि, भद्रा (विष्टि) व्रत और भद्रा के आविर्भाव की कथा, चन्द्र, शुक्र और बृहस्पति को अर्घ्य देने की विधि आदि का वर्णन हुआ है। इस पर्व के १२१ वें अध्याय में विविध प्रकीर्ण व्रतों के अंतर्गत लगभग ८५ व्रतों का उल्लेख आता है। इसके बाद माघ स्नान का विधान, स्नान, तर्पण विधि, रुद्र-खान की विधि, सूर्य-चन्द्र ग्रहण में खान का माहात्म्य आदि का वर्णन प्राप्त होता है।

Bhavishya2

भविष्य पुराण भाग १

भविष्य पुराण भाग २

भविष्य पुराण भाग ३

Bhavishya Puran Kalyan

भविष्य पुराण कल्याण Bhavishya Puran Kalyan

Bhavishya Puran Gita Press

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Share post:

Subscribe

Popular

More like this
Related

350+ प्रेरणादायक मोटिवेशनल कोट्स | 350+ Motivational Quotes in Hindi

350+ प्रेरणादायक मोटिवेशनल कोट्स | 350+ Motivational Quotes in...

मारुती स्तोत्र

Maruti Stotraमारुति स्तोत्र भगवान हनुमान को समर्पित एक लोकप्रिय...

सूर्य आरती

Surya Dev Aarti सूर्य आरती हिंदू धर्म में सूर्य देव...

विघ्ननिवारकं सिद्धिविनायक स्तोत्रम्

Vighna Nivarakam Siddhivinayaka Stotramविघ्ननिवारकं सिद्धिविनायक स्तोत्रम् भगवान गणेश को...