प्रश्नोपनिषद का परिचय Information of Prasnopanishad
प्राचीन भारतीय साहित्य में उपनिषदों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये वेदों के अंतिम भाग होते हैं, जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषदें मुख्यतः ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान की उच्चतम शिक्षाएँ प्रदान करती हैं। प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेदीय ब्राह्मणभागके अन्तर्गत है। इसका भाव्य आरम्भ करते हुए भगवान् भाष्यकार लिखते हैं- ‘अथर्ववेदके मन्त्रभागमें कही हुई उपनिषद्के अर्थका ही विस्तारसे अनुवाद करनेवाली यह ब्राह्मणोपनिषद् आरम्भ की जाती है।’ इससे विदित होता है कि प्रश्नोपनिषद् मुण्डकोपनिषद्में कहे हुए विषयको ही पूर्तिके लिये है। मुण्डकके आरम्भमें विद्याके दो भेद परा और अपराका उल्लेख कर फिर समस्त ग्रन्थमें उन्हींकी व्याख्या की गयी है। उसमें दोनों विद्याओंका सांवस्तर वर्णन है और प्रश्नमें उनकी प्राप्तिके साधनस्वरूप प्राणोपासना आदिका निरूपण है। इसलिये इसे उसकी पूर्ति करनेवाली कहा जाय तो उचित ही है।
उपनिषदों का महत्व Importance of Prasnopanishad
उपनिषदें केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं हैं, बल्कि ये मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं। इनमें जीवन का अंतिम लक्ष्य, आत्मा का स्वरूप, ब्रह्माण्ड की रचना आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। प्रश्नोपनिषद इसी श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है।
प्रश्नोपनिषद क्या है? What is Prasnopanishad
प्रश्नोपनिषद छः प्रश्नों और उनके उत्तरों पर आधारित है। यह साम वेद के एक भाग, अथर्ववेद के अंतर्गत आता है और इसमें मुख्यतः योग, प्राण और ब्रह्म के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। इस उपनिषद्के छः खण्ड हैं, जो छः प्रश्न कहे जाते हैं। ग्रन्थके आरम्भमें सुकेशा आदि छः ऋषिकुमार मुनिवर पिप्पलादके आश्रम- पर आकर उनसे कुछ पूछना चाहते हैं। मुनि उन्हें आज्ञा करते हैं कि अभी एक वर्ष यहाँ संयमपूर्वक रहो उसके पीछे जिसे जो-जो . प्रश्न करना हो पूछना । इससे दो बातें ज्ञात होती हैं। एक तो यह कि शिष्यको कुछ दिन अच्छी तरह संयमपूर्वक गुरुसेवामै रहनेपर ही विद्याग्रहणकी योग्यता प्राप्त होती है, अकस्मात् प्रश्नोत्तर करके ही कोई यथार्थ तत्त्वको ग्रहण नहीं कर सकताः तथा दूसरी बात यह है कि गुरुको भी शिप्यकी बिना पूरी तरह परीक्षा किये विद्याका उपदेश नहीं करना चाहिये, क्योंकि अनधिकारीको किया हुआ उपदेश निरर्थक ही नहीं, कई बार हानिकर भी हो जाता है। इसलिये शिष्यके अधिकारका पूरी तरह विचारकर उसकी योग्यता के अनुसार ही उपदेश करना चाहिये ।
प्रश्नोपनिषद उपनिषद की उत्पत्ति
यह उपनिषद मुनि पिप्पलाद द्वारा अपने शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर के रूप में वर्णित है। हर प्रश्न में गहन ज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग बताया गया है।
गुरुजीकी आज्ञानुसार उन मुनिकुमारोंने वैसा ही किया और फिर एक-एकने अलग-अलग प्रश्न कर मुनिवरके समाधानसे कृत- कृत्यता लाभ की। उन छहोंके पृथक् पृथक् संघाद ही इस उपनिषद्के छः प्रश्न हैं।
प्रथम प्रश्न: प्रजापति के पुत्तर
उनमेंसे पहले प्रश्नमें रयि और प्राणके द्वारा प्रजापतिसे ही सम्पूर्ण स्थावर जङ्गम जगत्की उत्पत्तिका निरूपण किया गया है। प्रायः यह देखा ही जाता है कि प्रत्येक पदार्थ दो संयोग-धर्म- वाली वस्तुओंके संसर्गसे उत्पन्न होता है। उनमें भोक्ता या प्रधानको प्राण कहा गया है तथा भोग्य या गौणको रयि। ये दोनों जिसके आधित हैं उसे प्रजापति कहा गया है। इसी सिद्धान्तको लेकर भिन्न-भिन्न पदाथोंमें जो कई प्रकारसे संसारके मूलतत्त्व माने जाते हैं- प्रजापति आदि दृष्टिका निरूपण किया गया है।
द्वितीय प्रश्न: प्राण का उद्गम
दूसरे प्रश्नमें स्थूलदेहके प्रकाशक और धारण करनेवाले प्राणका निरूपण है तथा एक आख्यायिकाद्वारा समस्त इन्द्रियोंकी अपेक्षा उसकी श्रेष्ठता बतलायी है। इश प्रश्न में शिष्य भारद्वाज ने पुछा, “प्राण का उद्गम क्या है?” यह प्रश्न जीवन शक्ति प्राण के उद्गम और उसकी कार्य प्रणाली के बारे में है। मुनि ने उत्तर दिया कि प्राण की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है और यह समस्त जीवन का आधार है। प्राण के बिना जीवन की कोई संभावना नहीं है।
तृतीय प्रश्न: प्राण और इंद्रियाँ
तीसरे प्रश्नमें प्राणकी उत्पत्ति और स्थितिका विचार किया गया है। वहाँ बतलाया है कि जिस प्रकार पुरुषकी छाया होती है उसी प्रकार आत्मासे प्राणकी अभिव्यक्ति होती है और फिर जिस प्रकार सम्राट् भिन्न-भिन्न स्थानोंमें अधिकारियोंकी नियुक्ति कर उनके अधिपतिरूपसे स्वयं स्थित होता है उसी प्रकार यह भी भिन्न-भिन्न अङ्गोंमें अपने ही अङ्गभूत अन्य प्राणोंको नियुक्त कर स्वयं उनका शासन करता है। वहीं यह भी बतलाया है कि मरणकालमें मनुष्यके सङ्कल्पानुसार यह प्राण ही उसे भिन्न-भिन्न लोकोंमें ले जाता है तथा जो लोग प्राणके रहस्यको जानकर उसकी उपासना करते हैं वे ब्रह्मलोकमें जाकर क्रममुक्तिके भागी होते हैं।
चतुर्थ प्रश्न: जाग्रत और स्वप्नावस्था
चौथे प्रश्नमें स्वप्नावस्थाका वर्णन करते हुए यह बतलाया गया है कि उस समय सूर्य की किरणोंके समान सब इन्द्रियाँ मनमें ही लीन हो जाती हैं, केवल प्राण ही जागता रहता है। वहाँ उसके भित्र-भिन्न भेदोंमें गार्हपत्यादिकी कल्पना कर उसमें अग्निहोत्रकी भावना की गयी है। उस अवस्थामें जन्म-जन्मान्तरोंकी वासनाओंके अनुसार मन ही अपनी महिमाका अनुभव करता है तथा जिस समय वह पित्तसंज्ञक सौर तेजसे अभिभूत होता है उस समय स्वप्नावस्था- से निवृत्त होकर सुषुप्तिमें प्रवेश करता है और आत्मामें ही लीन हो जाता है। आत्माका यह सोपाधिक स्वरूप ही द्रष्टा, श्रोता, मन्ता और विज्ञाता आदि है; इसका अधिष्ठान परब्रह्म है। उसका ज्ञान प्राप्त होनेपर पुरुष उसीको प्राप्त हो जाता है।
पंचम प्रश्न: पंचाग्नि विद्या
प्रश्न की व्याख्या
पाँचवें प्रश्नमें ओंकारका पर और अपर ब्रह्मके प्रतीकरूपसे वर्णन कर उसके द्वारा अपर ब्रह्मकी उपासना करनेवालेको क्रममुक्ति और परब्रह्मकी उपासना करनेवालेको परब्रह्मको प्राप्ति बतलायी है तथा उसकी एक, दो या तीन मात्राओंकी उपासनासे प्राप्त होनेवाले भिन्न-भिन्न फलोंका निरूपण किया है।
षष्ठ प्रश्न: ओम का महत्व
फिर छठे प्रश्नमें सुकेशा के प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्य पिप्पलादने मुक्तावस्थामें प्राप्त होने- वाले निरुपाधिक ब्रह्मका प्राणादि सोलह कलाओंके आरोपपूर्वक प्रत्यगात्मरूपसे निरुपण किया है। वहाँ भगवान् भाष्यकारने आत्मा- के सम्बन्धमें भिन्न-भिन्न मतावलम्बियोंकी कल्पनाओंका निरसन करते हुए बड़ा युक्तियुक्त विवेचन किया है। यही संक्षेपमें इस उपनिषद्का सार है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि इस उपनिषद्में प्रधानतया पर और अपर ब्रह्मविषयक उपासनाका ही वर्णन है तथा परब्रह्मकी अपेक्षा अपर ब्रह्मके स्वरूपका विशेष विवेचन किया गया है। परब्रह्म के स्वरूपका विशद और स्फुट निरूपण तो मुण्डकोपनिषद्में हुआ है। अतः इस उपनिषद्का उद्देश्य उस तत्त्वज्ञानकी योग्यता प्राप्त कराना है। यह हृदयभूमिको इस योग्य बनाती है कि उसमें तत्त्वज्ञानरूपी अङ्कुर जम सके । इसके अनुशीलनद्वारा हम वह योग्यता प्राप्त कर सकें-ऐसी भगवान्से प्रार्थना है।
प्रश्नोपनिषद पीडीएफ Prasnopanishad Hindi PDF
प्रश्नोपनिषद FAQs
प्रश्नोपनिषद का सार क्या है?
प्रश्नोपनिषद का सार ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान की प्राप्ति है। यह छः प्रश्नों और उनके उत्तरों के माध्यम से गहन ज्ञान प्रदान करता है।
इसे कैसे पढ़ा जा सकता है?
प्रश्नोपनिषद को विभिन्न टीकाओं और भाष्यों के माध्यम से पढ़ा जा सकता है। योग और ध्यान के अभ्यास से इसे समझना सरल हो जाता है।
इसका अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है?
इसका अध्ययन आत्मज्ञान, नैतिकता और आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है। यह जीवन को संतुलित और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।
क्या यह केवल हिंदू धर्म के लिए है?
हालाँकि यह हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है, लेकिन इसकी शिक्षाएँ सार्वभौमिक हैं और किसी भी व्यक्ति द्वारा अध्ययन और पालन किया जा सकता है।