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शुक्रवार, अक्टूबर 18, 2024

१०८ उपनिषद्

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१०८ उपनिषद् 108 Upanishad

उपनिषद् क्या है

‘वेद’ का अर्थ ‘बोध’ या ‘ज्ञान’ है। विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। उपनिषद् को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है, वेदान्त कहा गया है। क्योंकि यह वेदों का अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ भाग है। भारतीय दर्शन जगत् में प्रसिद्ध ‘प्रस्थान-त्रयी’ के उपनिषद् आदिम ग्रन्थ हैं तथा अन्य दोनों गीता और ब्रह्मसूत्र के उपजीव्य आश्रयीभूत है । इसे आध्यात्मिक मानसरोवर कहा जा सकता है, जिससे विस्तृत ज्ञान की सरिताएँ इस पुण्य भूमि में मानव मात्र के अभ्युदय (भौतिक उन्नति) एवं आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रवहमान हैं।

उपनिषद् का भाव


‘उपनिषद्’ का भाव- इसमें ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग हैं। ‘सद्’ धातु ‘गति’ के अर्थ में प्रयुक्त होती है। ‘गति’ शब्द का उपयोग ज्ञान, गमन और प्राप्ति इन तीन संदर्भों में होता है। यहाँ प्राप्ति अर्थ अधिक उपयुक्त है।

“उप सामीप्येन, नि- नितरां, प्राप्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद् ।”

अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है, वह ‘उपनिषद्’ है।
दूसरे शब्दों में ‘उप’ + ‘नि’ इन दो उपसर्गों के साथ ‘सद्’ धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय के प्रयोग से ‘उपनिषद्’ शब्द बना है। ‘सद्’ धातु के तीन अर्थ मान्य हैं- (१) विशरण (विनाश) (२) गति (ज्ञान और प्राप्ति) (३) अवसादन (शिथिल करना), इस आधार पर ‘उपनिषद्’ का अर्थ हुआ” जो पाप- ताप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्रदान करे, आत्मा की प्राप्ति कराये और अज्ञान- अविद्या को शिथिल करे, वह उपनिषद् है।”

अष्टाध्यायी (१.४.७९) में जीविकोपनिषदा- वौपम्ये सूत्रानुसार उपनिषद् शब्द परोक्ष या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र में युद्ध काल के गुप्त प्रयोगों की चर्चा में औपनिषद प्रयोग शब्द व्यवहृत हुआ है। इससे यह प्रकट होता है कि उपनिषद् का तात्पर्य रहस्य भी है।
अमरकोष (३. ९९) में भी आता है- “धर्मे रहस्युपनिषत् स्यात्” अर्थात् उपनिषद् शब्द गूढ़ धर्म एवं रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस आधार पर उपनिषद् को परोक्ष या रहस्यमय ज्ञान के स्रोत भी कह सकते हैं।
विद्वानों ने ‘उपनिषद्’ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी मानी है-उप (सामीप्य अथवा व्यवधान रहित), नि (विशिष्ट या सम्पूर्ण), सद् (ज्ञान या बोध) अर्थात् ‘ सामीप्य द्वारा प्राप्त विशिष्ट बोध अथवा व्यवधान रहित सम्पूर्ण ज्ञान।’ उपनिषदों में जिस ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई है, उसे निश्चित रूप से उक्त विशेषणों से युक्त कहा जा सकता है।
एक मत यह भी है-‘उपनिषद्यते प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद् ।’ जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके, वह उपनिषद् है। – तात्पर्य यह है कि उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान का ही प्रधानता से विवेचन हुआ है, जिससे उपनिषदों को अध्यात्म विद्या भी कहा जाता हैं। ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान, न तत्त्वज्ञान और ब्रह्मविद्या-ये सब पर्यायवाची शब्द – हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने उपनिषदों की महत्ता मुक्त कंठ से स्वीकार की है।

108 Upanishad

उपनिषदों की महत्ता

स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक प्रवचन में कहा था -“मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आँसू बहने लगते हैं। यह कितना महान् ज्ञान है ? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम न चलेगा। यह शक्ति कहाँ से प्राप्त हो ? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं, उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल, शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत, सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन, दुर्बल, दुःखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों खड़े हो जाओ और बन्धनों को काट डालो। शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता, यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।”
स्वामी विवेकानन्द जी ने उपनिषद्-ज्ञान की आवश्यकता को न केवल ब्रह्म प्राप्ति के लिए ही, अपितु दैनिक जीवन के लिए भी उपयोगी बतलाया है। उनका कथन है कि उपनिषदें वह शक्ति प्रदान करती हैं, जिसके द्वारा मनुष्य जीवन-संग्राम का धैर्य तथा साहस से मुकाबला करता है। जीवन का प्रत्येक क्षेत्र चाहे वह आध्यात्मिक हो या भौतिक दोनों में उपनिषदें अत्यन्त आवश्यक हैं।

उपनिषदों के स्त्रोत एवं उनकी संख्या

उपनिषदों की प्राप्ति के स्रोत के बारे में कोई एक बात कही जा सकती है, तो वह यही है कि उनका उद्भव ऋषियों-द्रष्टाओं के अनुभूति जन्य ज्ञान से हुआ है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है कि उपनिषदों को ‘वेद’ के ब्राह्मण आरण्यक प्रभाग के अन्तर्गत माना जाता है। कुछ उपनिषदें संहिता (मन्त्र भाग), ब्राह्मण एवं आरण्यक की अंगभूता-अंशभूता हैं, जबकि अधिकांश वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल के ऋषियों के प्रातिभ चक्षु से दृष्ट हैं, जिनका स्वतन्त्र अस्तित्व है।’ ऐतरेयोपनिषद्’ ऋावेद के ऐतरेय आरण्यक का भाग (२.४.६) है तथा ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक का भाग (प्रपाठक ७-८) है। इसी आरण्यक का अन्तिम प्रपाठक (क्र. १०) ‘नारायणोपनिषद्’ कहलाता है, जो अथर्ववेदीय महानारायणोपनिषद् से भित्र है।

शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के अन्तिम (१४वे) काण्ड के अन्तिम छः अध्याय को ‘बृहदा- रण्यकोपनिषद्’ कहा गया है। ब्राहाण ग्रन्थ का यह भाग आरण्यक भी है और उपनिषद् भी है। इसी प्रकार ‘ईशावास्योपनिषद्’ भी यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काष्व संहिताओं का ४० वाँ अध्याय है।

सामवेद की कौथुमी शाखा के तलवकार ब्राह्मण ग्रन्थ के अन्तिम भागों (३३ से ४० अध्यायों) को छान्दोग्योपनिषद् कहा गया है। ऋग्वेदीय ‘कौषीतकि’ या ‘शाङ्खायन आरण्यक’ के अध्याय ३-६ को ‘कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्’ कहते हैं।

मुक्तिकोपनिषद् (श्लोक क्र. ३० से ३९) में १०८ उपनिषदों की सूची प्रास है। इन १०८ में से ऋग्वेद की १०, शुक्ल यजुर्वेद की १९, कृष्ण यजुर्वेद को ३२, सामवेद की १६ तथा अथर्ववेद की ३१उप- निषटें कही गयी हैं। मुक्तिकोपनिषद् में चारों वेदों की शाखाओं की संख्या देते हुए प्रत्येक शाखा की एक-एक उपनिषद् होने की बात भी कही गयी है-

ऋग्वेदादिविभागेन वेदाश्चत्वार ईरिताः ।
तेषां शाखा ह्यनेकाः स्युस्तासूपनिषदस्तथा ।।
ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशति संख्यकाः ।
नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज ।।
सहस्रसंख्यया जाताः शाखा: साम्रः परन्तप।
अथर्वणस्य शाखाः स्युः पंचाशद्भदतो हरे ॥
एकैकस्यास्तु शाखाया एकैकोपनिषन्मता ।

मुक्तिकोपनिषद् ११-१४

उपनिषदों के रचना काल के सम्बन्ध में कोई एक मत स्वीकार नहीं किया जा सकता है। कुछ उपनिषदें वेद की मूल संहिताओं की अंश है, उन्हें सबसे प्राचीन माना जाता है। कुछ उपनिषदें ब्राह्मण, आरण्यक आदि के अंश हैं, उनका रचनाकाल निश्चित रूप से संहिता काल के बाद का ही सिद्ध होगा। कुछ उपनिषदें स्वतंत्र हैं, वे सब बाद में क्रमशः अस्तित्व में आयीं।
काल निर्णय के सन्दर्भ में मंत्रों-शोकों में प्राप्त विभिन्न विवरणों का सहारा लिया जाता है। मंत्रों में जो संदर्भ मिलते हैं, उनमें

(१) भौगोलिक परिस्थितियाँ
(२) सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं राजाओं या ऋषियों के नाम
(३) खगोलीय योगों के विवरण हैं।

इनमें भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर गंगा, सरस्वती, सिन्धु आदि नदियों के नाम आदि के आधार पर केवल यही संकेत मिलते हैं कि इनका रचनाकाल संदर्भित नदी आदि के उद्भव के बाद का ही है। इसलिए कोई सुनिश्चित काल निर्धारण इस आधार पर नहीं हो पाता। राजाओं- ऋषियों के नामों को आधार बनाने में भी उक्त समस्या बनी रहती है। फिर एक ही नाम के अनेक राजा एवं ऋषि पाये जाते हैं जिनके बीच अनेक पीढ़ियों के अंतर होते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकाल का निर्णय भी ठीक प्रकार नहीं हो पाता।
जहाँ खगोलीय योगों का वर्णन मिल जाता है, वहाँ ज्योतिष गणित के आधार पर बहुत कुछ सुनिश्चित गणना की जा सकती है। संहिताओं, ब्राह्मणों एवं स्वतंत्र उपनिषदों के काल निर्णय के संदर्भ में भी इसी विद्या का उपयोग अधिकांश विद्वानों ने किया है। इस विधि से किये गये काल निर्णयों को समझने में सहायक हो सकने वाली मोटी जानकारी यहाँ दी जा रही है।

उपनिषद् की अपनी शैली अद्भुत है। गूढ़ रहस्यों को समझने की तीव्र उत्कण्ठा, अनुभूति की गहन क्षमता तथा अभिव्यक्ति की सहजता का दर्शन जगह-जगह होता ही रहता है।
कठोपनिषद् में नचिकेता अपनी जिज्ञासा को लेकर यम के सामने इतने अविचल भाव से डटे रहते हैं कि यम को द्रवित होना ही पड़ता है। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु सहित जिज्ञासु भाव से क्षत्रिय राजा प्रवाहण से उपदेश प्राप्त करने में कोई संकोच नहीं करते। ऐतरेय उपनिषद् में ऋषि वामदेव प्रजनन चक्र समझने के लिए स्वयं अपनी चेतना को उस चक्र में घुमाकर अनुभव प्राप्त करते हैं। इस प्रकार प्राप्त अनुभूतिजन्य ज्ञान को जनहितार्थ बड़ी सहजता से व्यक्त किया जाता है।

उपनिषदों में कर्मकाण्ड का तथा उनकी फलश्रुतियों का उल्लेख भी जहाँ-तहाँ मिलता है; लेकिन वे वहीं तक सीमित नहीं रह जाते । कर्मकाण्ड के स्थूल स्वरूप को भेदकर उसके मर्म तक पहुँचते हैं, वे सामगान की व्याख्या करते हैं, तो उसे यज्ञीय कर्मकाण्ड में कुछ मन्त्रों के गायन तक ही सीमित नहीं रहने देते। छान्दोग्योपनिषद् प्रथम अध्याय के तेरहवें खण्ड में तथा अध्याय-२ के दूसरे खण्ड में प्रकृति चक्र में अनेक प्रकार के साम प्रवाह (सन्तुलित प्रवाहों) का स्वरूप समझाते हैं। उपनिषद् में पुरुषमेध-सर्वमेध आदि यज्ञ आत्म निग्रह के विधान बन जाते हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद् के अश्वमेध प्रकरण में अश्वमेध, व्यक्ति द्वारा सम्पूर्ण विश्व को समर्पित करने की समाधि जैसी प्रक्रिया के रूप में परिलक्षित होने लगता है।

उपनिषदों का भाव और भाषा

उपनिषद् में भाव और भाषा की सहजता का बड़ा सुन्दर तालमेल मिलता है। अनुभूति से उपजे सहज भावों को सहज भाषा में व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। अपने भाषा ज्ञान को व्यक्त करने में आडम्बर पूर्ण, क्लिष्ट भाषा को थोपने का प्रयास नहीं किया गया है। इसके लिए तर्क, समीक्षा, कथोपकथन, उदाहरण, उपाख्यान आदि विभिन्न शैलियों का समयानुकूल उपयोग करते हुए भावों को सहज ग्राह्य बनाने का प्रयास किया गया है।
यह सब होते हुए भी रहस्यात्मकता जगह- जगह परिलक्षित होती है। उसके कई कारण हैं। जैसे गूढ़ ज्ञान- विज्ञान को कितना भी सुगम बनाया जाये, उन्हें समझने के लिए अध्येता का अपना भी कुछ सार होना चाहिए। द्रष्टा ने जो देखा उसे पूरी तरह भाषा में बाँधना तो कभी सम्भव होता नहीं। भाषा में संकेतात्मक अभिव्यक्ति भर होती है। कोई संगीत विशेषज्ञ सुन्दर राग में मुधर भावों को गाकर व्यक्त करे, तो सुनने वाला उसके अन्दर के भाव प्रवाह की एक झलक भर ही पा सकता है। वह भी गायन स्वर संकेतों के साथ लिपिबद्ध किया जाए, तब तो उसके भावों को समझने के लिए और भी अधिक साधना चाहिए।

आज पदार्थ विज्ञान को समझने के लिए केवल भाषा की समीक्षा करके तथ्य जानने की परिपाटी चल पड़ी है। पदार्थ विज्ञान के सन्दर्भ में यह पद्धति चल भी जाती है। लेकिन भाव विज्ञान के क्रम में तो केवल भाषा की समीक्षा से काम चल नहीं सकता। गूढ़ भावों को अनुभव करने के लिए सूक्ष्म संवेदनात्मक क्षमताएँ चाहिए। आज उनका बड़ा अभाव हो गया है। इसीलिए उपनिषदादि द्वारा सहज भाषा में प्रस्तुत भाव भी रहस्यात्मक प्रतीत होते हैं। ऋषि, देवता एवं छन्द को समझे बिना वेदमन्त्रों का भाव स्पष्ट नहीं होता। उसी प्रकार उपनिषदों के अध्ययन में भी द्रष्टा-उपदेष्टा के स्तर, उसके लक्ष्य और अभिव्यक्ति की शैली पर गहराई से ध्यान देने पर ही उनके भावों के कथन का ठीक-ठीक लाभ उठाया जा सकता है


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