श्रीमद्भागवत पुराण(भागवत पुराण) – Shrimad Bhagwat Puran Katha
Table of Contents
श्रीमद्भागवत पुराण एक ऐसा पुराण है जिसे इस कलिकाल में हिन्दू समाज द्वारा सर्वाधिक आदरणीय माना जाता है। इसे वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है। इस पुराण में वेदों, उपनिषदों और दर्शन शास्त्र के गूढ़ और रहस्यमय विषयों को अत्यंत सरलता से प्रस्तुत किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहना सही होगा। इसे सैकड़ों वर्षों से हिन्दू समाज के धार्मिक, सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद मिली है।
इस प्राचीन ग्रन्थ में विभिन्न साधनाओं का समन्वय है, जैसे सकाम और निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का संगम। यह ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ विविधता और सुंदर काव्यरूप से भरा हुआ है, जो रीति-रिवाज़ों के साथ संबंधित है। इसमें विज्ञान की अविरत धारा है, जो पाठक को अगम्य ज्ञान के तीर की ओर खींचती है। यह पुराण विभिन्न प्रकार के कल्याण का संचयक और तीन तापों – भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक – को शांत करने वाला है। इसमें ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की गहराई है।
इस पुराण में बारह स्कन्ध हैं, जिनमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना के परिणामस्वरूप लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चौबीस अवतारों की कथा कही।
इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म-व्यवस्था का सम्मान किया गया है और स्त्रियों, शूद्रों, और पतित व्यक्तियों को वेद सुनने का अधिकार नहीं था। इसके साथ ही ब्राह्मणों को विशेष महत्व दिया गया था। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इनकार किया गया था क्योंकि उनके पास इन मन्त्रों को समझने और स्मृति में संग्रहित करने के लिए उपयुक्त समय नहीं था और उनका बौद्धिक विकास इतना विकसित नहीं था। इसके बाद, वैदिक ऋषियों की भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़िवादी बना दिया और वर्गभेद को उत्पन्न किया।
‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में बार-बार श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक स्वरूप का वर्णन है, जिसे बहुत खूबसूरती से व्यक्त किया गया है। पुराणों के लक्षणों में आम तौर पर पाँच विषयों का उल्लेख होता है, लेकिन इसमें दस विषयों-सर्ग-विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय का भी वर्णन होता है (दूसरे अध्याय में इन दस लक्षणों का विवरण किया गया है)। यहाँ श्रीकृष्ण के गुणों का सुंदर वर्णन किया गया है, और उनके भक्तों की शरण लेने से किरात्, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस जैसी जातियाँ भी पवित्र हो जाती हैं।
पुराणों के क्रम में भागवत पुराण का स्थान कोनसा है।
पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान प्राप्त करता है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान हम सबसे अधिक प्रसिद्ध होने के कारण लगा सकते हैं। भागवत पुराण को वैष्णव धर्म का 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों का महापुराण माना जाता है। यह पुराण भक्तिशाखा के अद्वितीय ग्रंथ के रूप में माना जाता है और इसके विभिन्न आचार्यों ने कई टीकाएँ बनाई हैं। इसमें कृष्ण-भक्ति का अच्छा अवसर मिलता है और यह एक आध्यात्मिक ज्ञान का सागर है। इसमें उच्च दार्शनिक विचारों का भी प्रचुर प्रसार है। इस पुराण में प्रमुख कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख नहीं होता है। श्रीमद् भागवत पुराण है इस पुराण का पूरा नाम।
भागवत पुराण के बारे में क्या मान्यताए हैं।
बहुत से लोग इस विषय में विभाजित हैं। कुछ इसे महापुराण नहीं मानते हैं और उन्हें यह लगता है कि यह देवी-भागवत को उपपुराण कहा जाना चाहिए। जैसा कि आपने पहले भी देखा है, कुछ लोगों के विचार इस विषय में भिन्न होते हैं। यहां भागवत के रचनाकाल के संबंध में विवाद भी है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया था, जबकि अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी के ग्रंथ के रूप में मानते हैं। कुछ लोगों के अनुसार इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना भी कहा जाता है। भागवत पुराण के दसवां स्कंध भक्तों में विशेष रूप से प्रिय है।
भागवत पुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में क्या कहा गया हैं।
सृष्टि-उत्पत्ति के बारे में इस पुराण में एक विचित्र सत्य बयां किया गया है। यहाँ कहा गया है कि ईश्वर की इच्छा के कारण वह अपनी माया के साथ एक से बहुत होने की सृजनशील शक्ति का स्वयंसिद्ध होते हैं। विश्व के उत्पन्न होने के समय, ईश्वर ने अपने स्वभाव, काल और कर्म को स्वीकार कर लिया। इससे तीनों गुणों – सत्व, रज, और तम, में क्षोभ उत्पन्न हुआ, और स्वभाव ने उस क्षोभ को रूपांतरित कर दिया। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, कर्म गुणों को जन्म मिला जिनसे अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, मन, इंद्रियाँ, और सत्व में परिवर्तित हो गए।
इन सभी तत्वों के संयोजन से व्यक्ति और ब्रह्मांड की रचना हुई। ब्रह्मांड एक अण्डे की तरह एक हजार वर्षों तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उस ब्रह्मांड से एक सहस्त्र-मुखी और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। इस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य, और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
पहली बार जब एक पुरुष रूपी नर से उत्पन्न हुआ, उस समय जल को ‘नार’ नाम से पुकारा गया। धीरे-धीरे इस नार को ‘नारायण’ कहने लगा। इस प्रकार, कुल मिलाकर दस प्रकार की सृष्टियाँ बताई गई हैं। ये सृष्टियाँ हैं – महत्त्व, अहंकार, तन्मात्र, इन्द्रियाँ, और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव ‘मन’, और अविद्या। यह सभी छह प्राकृतिक सृष्टियाँ हैं। इसके अलावा चार विकृत सृष्टियाँ भी हैं, जिनमें स्थावर , वृक्ष , पशु-पक्षी , मनुष्य, और देव शामिल होते हैं। इन सृष्टियों का विवरण भी बहुत रूपरेखा से किया गया है, जो पाठकों को आकर्षित करता है।
श्रीमद्भागवत पुराण में हिन्दू काल गणना में बारे में बताई गई बाते क्या हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण में काल गणना को बहुत सूक्ष्म रूप से किया गया है। इसके अनुसार, सभी वस्तुएं परमाणुओं से बनी होती हैं। एक परमाणु दो अणुओं से मिलकर बनता है और तीन अणुओं से मिलकर एक त्रसरेणु बनता है। त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य के किरणों को काफी समय लगता है, इसे हम ‘त्रुटि’ कहते हैं। एक त्रुटि का कालवेध सौ गुना होता है और तीन कालवेध का एक ‘लव’ होता है। तीन लव के मिलने से एक ‘निमेष’ बनता है, तीन निमेष से एक ‘क्षण’ और पाँच क्षणों के मिलने से एक ‘काष्टा’ बनता है। इसी तरह, पन्द्रह काष्टा बनकर एक ‘लघु’ बनता है, पन्द्रह लघुओं के मिलने से एक ‘नाड़िका’ या ‘दण्ड’ बनता है। दो नाड़िका या दण्डों के मिलने से एक ‘मुहूर्त’ बनता है और छह मुहूर्त के मिलने से एक ‘प्रहर’ या ‘याम’ बनता है।
चतुर्युग, यानी सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग – इन चारों युगों में एक बारह हज़ार वर्ष का समय होता है। यह एक दिव्य वर्ष होता है जिसका मानवों के तीन सौ साठ वर्षों के बराबर होता है।
युग के नाम | एक युग में कितने वर्ष होते है |
सतयुग | ४८०० |
त्रेतायुग | ३२०० |
द्वापरयुग | २४०० |
कलयुग | १२०० |
प्रत्येक मनु के पास 7,16,114 चतुर्युगों तक अधिकार होता है। एक ‘कल्प’ में, ब्रह्मा के चौदह मनु होते हैं, जिससे रोज़ की सृष्टि होती है। इस ब्रह्माण्डकोश को सोलह विकारों (प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रांए, दो प्रकार की इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत) से बना है, जिसमें भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार है। इसके ऊपर दस-दस आवरण हैं। इस ब्रह्माण्ड में करोड़ों राशियाँ हैं, जिसमें परमाणु रूप में दिखाई देने वाली परमात्मा का परमधाम स्थित है। इस प्रकार, पुराणकार ने ईश्वर की महत्ता, काल की महानता और उसकी तुलना में चराचर पदार्थ अथवा जीव की अत्यल्पता का विवेचन किया है।
श्रीमद्भागवत पुराण का प्रथम स्कंध
इस पुराण के प्रथम स्कंध में शुकदेव जी द्वारा ईश्वर भक्ति का महत्वपूर्ण वर्णन है, जिसमें भगवान के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन, देवर्षि नारद के पूर्वजन्म के किस्से, राजा परीक्षित के जन्म का वर्णन, कर्म और मोक्ष की कथा, अश्वत्थामा के निन्दनीय कृत्य और उसकी हार-जीत, भीष्म पितामह का प्राणत्याग, श्रीकृष्ण का द्वारका गमन, विदुर के उपदेश, धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती की यात्रा, और पांडवों का स्वर्ग प्राप्ति के लिए हिमालय जाने की घटनाएं वर्णित हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण का द्वितीय स्कंध
भगवान के विराट स्वरूप के वर्णन से श्रीमद् भागवत पुराण का स स्कंध प्रारंभ होता है। इसके बाद विभिन्न देवताओं की उपासना, गीता के उपदेश, श्रीकृष्ण की महिमा और ‘कृष्णार्पणमस्तु’ की भावना से युक्त भक्ति का वर्णन होता है। इसमें बताया गया है कि सभी जीवात्माएं ‘आत्मा’ स्वरूप में कृष्ण ही विराजमान हैं। स्कंध में पुराणों के दस लक्षणों और सृष्टि-उत्पत्ति का भी उल्लेख है।
श्रीमद्भागवत पुराण का तृतीय स्कंध
तृतीय स्कंध की कहानी उद्धव और विदुर जी की मुलाकात से शुरू होती है। यह कहानी उद्धव जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और अन्य चरित्रों का सुंदर वर्णन करती है। इसमें विदुर जी और मैत्रेय ऋषि के संवाद का भी उल्लेख है, साथ ही सृष्टि क्रम, ब्रह्मा की उत्पत्ति, काल के विभाजन, सृष्टि का विस्तार, वराह अवतार की कथा, दिति के आग्रह से ऋषि कश्यप द्वारा उससे सहवास करना और उससे दो अशुभ राक्षस पुत्रों का जन्म देना, जय-विजय के सनत्कुमार द्वारा शापित होना, विष्णुलोक से गिरना, और दिति के गर्भ से ‘हिरण्याक्ष’ और ‘हिरण्यकशिपु’ के रूप में प्रकट होना, प्रह्लाद की भक्ति, वराह अवतार द्वारा हिरण्याक्ष और नृसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकशिपु का वध, कर्दम-देवहूति का विवाह, सांख्य शास्त्र का उपदेश और भगवान के अवतार के रूप में कपिल मुनि का वर्णन भी है।
श्रीमद्भागवत पुराण का चतुर्थ स्कंध
इस स्कंध की प्रसिद्धि ‘पुरंजनोपाख्यान’ के कारण बहुत अधिक है। इस कहानी में हमें पुरंजन नामक राजा और भारतखण्ड की एक सुंदरी के कहानी का वर्णन मिलता है। इस कथा में पुरंजन अपनी भोग-विलास की इच्छा से नवद्वार वाली नगरी में प्रवेश करता है। यहां उसे यवनों और गंधर्वों के आक्रमण का सामना करना पड़ता है। इस कहानी में नवद्वार वाली नगरी को शरीर के समान दिखाया गया है, जहां जीव युवावस्था में स्वच्छंद रूप से विहार करता है। लेकिन कालकन्या रूपी वृद्धावस्था के आक्रमण से उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है और अंत में उसमें आग लगा दी जाती है।
नारद जी कहते हैं, “पुरंजन देहधारी जीव है और नगर वह मानव देह है, जो नौ द्वारों से युक्त है। इस नगर का अर्थ है मानव शरीर जिसमें नौ द्वारों- दो आँखें, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुख, एक गुदा और एक लिंग- से लबालब गहनता है। इस सुन्दरी नगरी में अविद्या और अज्ञान की माया छिपी हुई है। इसके दस इन्द्रियाँ उसके सेवक हैं जो उससे प्रवृत्त होकर उन्हें विषयों की ओर खींचती हैं। पंचमुखी सर्प इस नगर की रक्षा करते हैं, और इसके ग्यारह सेनापति पाप और पुण्य के दो पहिए, तीन गुणों वाले रथ की ध्वजा, सात धातुओं का आवरण, और इन्द्रियों के द्वारा भोग शिकार का प्रतीक हैं। यहाँ शत्रु गंधर्व चण्डवेग के रूप में काल की गति और वेग का प्रतीक है। इसके तीन सौ साठ गंधर्व सैनिक वर्ष के तीन सौ साठ दिन और रात्रि हैं, जो आयु को धीरे-धीरे समाप्त करते हैं। पाँच प्राण वाले मनुष्य ने रात-दिन इन्द्रियों के साथ युद्ध किया और हारता रहता है। काल भयग्रस्त जीव को ज्वर या व्याधि से नष्ट कर देता है।
श्रीमद्भागवत पुराण का पंचम स्कंध
पांचवें स्कंध में प्रियव्रत, अग्नीध्र, राजा नाभि, ऋषभदेव, और भरत आदि राजाओं के चरित्रों का वर्णन होता है। यहां पर भरत जड़वंशी भरत है, शकुंतला के पुत्र नहीं। भरत का जन्म मृग मोह में हुआ था, मृग योनि में जन्मने के बाद उन्होंने गंडक नदी के प्रताप से ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था और बाद में सिंधु सौवीर राजा से आध्यात्मिक संवाद किया था।
इसके बाद पुरंजनोपाख्यान के रूप में प्राणियों के संसार का सुंदर वर्णन किया गया है, जो रूपक के माध्यम से किया गया है। इसके बाद भरत वंश और भूवन कोश का वर्णन आता है। इसके उपरांत, गंगावतरण की कथा, भारत के भौगोलिक वर्णन, और भगवान विष्णु के स्मरण के रूप में शिशुमार नामक ज्योतिष चक्र को करने की विधि बताई गई है। इसके अंत में विभिन्न प्रकार के रौरव नरकों का विवरण दिया गया है।
श्रीमद्भागवत पुराण का षष्ठ स्कंध
षष्ठ स्कंध में नारायण कवच और पुंसवन व्रत विधि का बयान आपके लिए एक आसान, विशेष, और रोचक तरीके से किया गया है। पुंसवन व्रत करने से पुत्र प्राप्ति होती है, जो एक परिवार के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस व्रत के द्वारा व्यक्ति को विभिन्न रोगों, व्याधियों, और ग्रहों के दुष्प्रभाव से संरक्षण प्राप्त होता है। इस व्रत का महत्व विशेष रूप से एकादशी और द्वादशी के दिनों में होता है, इसलिए इन दिनों पर इसे अवश्य करना चाहिए।
इस खण्ड की शुरुआत कान्यकुब्ज के निवासी अजामिल उजामिल की कहानी से होती है। जब अजामिल अपनी मृत्यु के समय परमेश्वर को अपने पुत्र ‘नारायण’ को बुलाता है, तभी एक चमत्कारिक घटना घटती है। भगवान विष्णु के दूत उसे सामर्थ्यशाली परमलोक ले जाते हैं। इस उपाख्यान में भागवत धर्म की अद्भुतता का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, ब्रह्महत्यारी, गुरु , गुरु-पत्नीगामी से सम्बन्ध बनाने वाला व्यक्ति, चाहे वह कितना भी पापी हो, अगर वह भगवान विष्णु के नाम का स्मरण करता है, तो उसके सभी पाप क्षमा हो जाते हैं। हालांकि, इसमें एक अधिभूत हकीकत छिपी है। व्यक्ति जो परस्त्रीगामी और गुरु की पत्नी के साथ संबंध बनाता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक घिनौना पाप है और ऐसे व्यक्ति को रौरव नरक में पड़ना पड़ता है।
इस अद्भुत समृद्ध स्कंध में हमें दक्ष प्रजापति के वंश का रोचक वर्णन मिलता है। नारायण कवच के प्रयोग से इन्द्र को शत्रु पर एक बड़ी विजय प्राप्त होती है। इस कवच का प्रभाव मृत्यु के बाद भी बरकरार रहता है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में वत्रासुर राक्षस द्वारा देवताओं की हार, दधीचि ऋषि द्वारा वज्र निर्माण और वत्रासुर के वध की रोचक कथा भी दर्शाई गई है।
श्रीमद्भागवत पुराण का सप्तम स्कंध
सप्तम स्कंध में भक्तराज प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की कथा विस्तारपूर्वक प्रस्तुत है। इसके अलावा, मानव धर्म, वर्ण धर्म और स्त्री धर्म का विस्तृत विवेचन भी किया गया है। भक्त प्रह्लाद के कथानक के माध्यम से हमने धर्म, त्याग, भक्ति और निस्पृहता जैसे मुद्दों पर चर्चा की है।
श्रीमद्भागवत पुराण का अष्टम स्कंध
इस स्कंध में ग्राह द्वारा गजेन्द्र को पकड़ने से उसके उद्धार की एक रोचक कहानी है, जो विष्णु द्वारा सुनाई गई है। इसी स्कन्ध में समुद्र मन्थन की कथा और विष्णु द्वारा मोहिनी रूप में अमृत वितरण की एक और रोचक कहानी भी है। इस स्कंध में देवासुरों के बीच संग्राम का वर्णन और भगवान विष्णु के ‘वामन अवतार’ की भी एक कथा है। आख़िर में, इस स्कंध में ‘मत्स्यावतार’ की कथा से यह समाप्त होता है।
श्रीमद्भागवत पुराण का नवम स्कंध
इस पुराणिक विशेषता ‘वंशानुचरित’ में दर्शाया गया है कि मनु और उनके पाँच पुत्रों के वंशों का वर्णन होता है। यहां वंश-इक्ष्वाकु, निमि, चंद्र, विश्वामित्र, पुरू, भरत, मगध, अनु, द्रह्यु, तुर्वसु और यदु वंश के सम्बन्धी बातें प्रस्तुत की गई हैं। इसके अलावा, राम, सीता और अन्य महापुरुषों का विस्तार से विवेचन भी किया गया है और उनके आदर्शों का भी वर्णन हुआ है। सूर्यवंश वृक्ष और चन्द्र वंश वृक्ष को भी देखना महत्वपूर्ण है।
श्रीमद्भागवत पुराण का दशम स्कंध
इस स्कंध को दो भागों में बाँटा गया है – ‘पूर्वार्द्ध’ और ‘उत्तरार्ध’। यहाँ श्रीकृष्ण के चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन है। सबसे प्रसिद्ध ‘रास पंचाध्यायी’ भी इसी में शामिल होती है। ‘पूर्वार्ध’ में श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर अक्रूर जी के हस्तिनापुर जाने तक की कथा है। और ‘उत्तरार्ध’ में हमें जरासंध से युद्ध, द्वारकापुरी का निर्माण, रुक्मिणी हरण, श्रीकृष्ण का गृहस्थ धर्म, शिशुपाल वध और बहुत कुछ दिखाई देता है। यह स्कंध पूरी तरह से श्रीकृष्ण के लीलाओं से भरपूर है।
इसकी शुरुआत होती है वसुदेव और देवकी के विवाह से। और फिर कंस द्वारा देवकी के बालकों की हत्या की भविष्यवाणी। इसके बाद हम देखते हैं कृष्ण का जन्म। उसकी मासूम बाल लीलाएं, गोपालन, कंस के वध, और अक्रूर जी की हस्तिनापुर यात्रा आते हैं।
फिर आता है ‘उत्तरार्ध’, जहाँ हम देखते हैं जरासंध से युद्ध, द्वारका पलायन, द्वारका नगरी का निर्माण, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न का जन्म, शम्बासुर वध, स्यमंतक मणि की कथा, और जांबवती और सत्यभामा के साथ कृष्ण का विवाह। इसके अलावा उषा-अनिरुद्ध का प्रेम प्रसंग, बाणासुर के साथ युद्ध और राजा नृग की कथा भी है।
इसी स्कंध में हमें कृष्ण-सुदामा की मित्रता की गहराई से कथा भी मिलती है। सबकुछ एक साथ मिलाकर यह स्कंध एक सच्ची रंगीनी से भरी हुई कहानी है।
श्रीमद्भागवत पुराण का एकादश स्कंध
एकादश स्कंध में राजा जनक और नौ योगियों के संवाद से भगवान के भक्तों के विशेष गुणों का वर्णन हुआ है। यह विशेषता से भरी हुई व्याख्या में ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय महाराज ने राजा यदु को सिखाया कि धरती से धैर्य, वायु से संतोष और निर्लिप्तता, आकाश से अपरिछिन्नता, जल से शुद्धता, अग्नि से विमुक्ति और माया से परे होने की सीख है। उन्होंने चन्द्रमा के चमक को क्षणिकता के साथ देखा, सूर्य को ज्ञान की प्रकाशक कहा और त्याग की शिक्षा का उपदेश दिया।
आगे बढ़ते हुए, उद्धव को अठ्ठारह प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किया गया है। इस सम्पूर्ण संवाद के अंत में, ईश्वर की विभूतियों का वर्णन किया गया है और वर्णाश्रम धर्म, ज्ञान योग, कर्मयोग और भक्तियोग के माध्यम से भगवान के प्रति भक्ति का महत्व बताया गया है।
श्रीमद्भागवत पुराण का द्वादश स्कंध
परीक्षित राजा के बाद के राजवंशों का वर्णन भविष्यकाल में हुआ था। इस संबंध में, राजा प्रद्योतन ने 138 वर्षों तक शासन किया, फिर शिशुनाग वंश के दास राजा आए, जिन्होंने मौर्य वंश के 136 वर्षों तक, शुंग वंश के 112 वर्षों तक, कण्व वंश के चार राजा 345 वर्षों तक और आन्ध्र वंश के 456 वर्षों तक शासन किया। इसके बाद, विभिन्न राजाओं के राज्य की बारी आएगी जैसे कि आमीर, गर्दभी, कड़, यवन, तुर्क, गुरुण्ड और मौन। मौन राजा लगभग 300 वर्षों तक राज्य करेंगे और शेष राजाओं का शासन 1096 वर्षों तक चलेगा। इसके बाद, वाल्हीक वंश, शूद्रों और म्लेच्छों का शासन होगा। इस पुराण में धार्मिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक, और ऐतिहासिक कृतियों के अलावा बहुत महत्वपूर्ण संदेश है।
श्रीमद्भागवत पुराण हिंदी में Shrimad Bhagwat puran
Disclaimer / Notice: The preview images presented are only for reference purposes and are the property of the PDF's actual / respective owners / copyright holders. We do not claim ownership of these photographs. Please report any problems with the PDF or photos used.