“रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग का यह अंश महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित काव्य का एक अत्यंत मार्मिक और गूढ़ भावों से युक्त भाग है। यह खंड कर्ण की आत्मग्लानि, निष्ठा, आदर्श और आंतरिक द्वंद्व का एक ज्वलंत चित्रण करता है।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 10 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 10
छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,
अब जाऊंगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?
करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊंगा,
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?
यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?
परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।’
लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
बोले- हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रो का, विश्व-विजय का कामी है?
अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

पंक्तियों की व्याख्या:
छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।
कर्ण स्वीकार करता है कि उसने समाज में जो प्रतिष्ठा पाई है, वह छल से प्राप्त की है। वह स्वयं को दोषी मानता है और यह मानता है कि उसका यह सम्मान पवित्र नहीं, अपवित्र (मल/किल्विष) है।
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,
अब जाऊंगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?
कर्ण कहता है कि अब तक उसे दानवीर, तपस्वी और वीर के रूप में जाना जाता था, लेकिन आज जब उसे पता चला कि उसने अपने गुरु को धोखा देकर विद्या पाई, तो वह स्वयं को अधम, छली और लज्जास्पद अनुभव करता है।
करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे तुरंत भस्म कर दिया जाए क्योंकि उसका जीवन-व्रत, उसकी जीवन साधना अपूर्ण रह गई। वह स्वयं को पूर्णतः समर्पित करता है।
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊंगा,
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?
कर्ण कहता है कि वह गुरु के श्राप से तो मर जाएगा, लेकिन उसे यह पीड़ा है कि वह अर्जुन के घमंड को नहीं तोड़ पाएगा, जिसे वह युद्ध में हराकर ही संतोष पाता।
यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।
यहाँ कर्ण मनोवैज्ञानिक रूप से अपने भीतर की ‘विजय की तृष्णा’ को स्वीकार करता है। वह जानता है कि यह कामना उसे मरने के बाद भी शांत नहीं रहने देगी यह अतृप्त इच्छाएँ उसके चित्त को मथती रहेंगी।
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?
कर्ण की मित्रता दुर्योधन से है। वह दुर्योधन की पराजय की कल्पना से ही व्यथित हो उठता है। वह कहता है कि यदि अर्जुन विजयी हुआ और निर्भीक हो गया, तो वह यह अपमान मरकर भी नहीं सह पाएगा।
परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
कर्ण का आत्मसम्मान उसे जीवनदान माँगने से रोकता है। वह शांति से अपने गुरु के चरण पकड़कर प्राण त्याग देने को प्रस्तुत होता है। यह उसकी विनम्रता और दृढ़ता का भाव है।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।’
कर्ण गुरु से विनती करता है कि वह उसे शाप अवश्य दें, लेकिन एक कृपा करें — उसे अपने चरणों में प्राण त्यागने की अनुमति दें।
लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
यह दृश्य अत्यंत भावुक है। कर्ण अपने गुरु के चरणों में लिपट जाता है और गुरु की आँखों से दो आँसू गिरते हैं — एक तरह से उनका हृदय भी इस सत्य से द्रवित हो उठता है।
बोले- हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रो का, विश्व-विजय का कामी है?
परशुराम अब जान जाते हैं कि यह वही कर्ण है, जो अर्जुन के समकक्ष है — जो अद्वितीय योद्धा है, जो निष्कलंक मित्र है और जिसने विश्व विजय की आकांक्षा पाल रखी है।
अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
अब गुरु को यह समझ आता है कि कर्ण इतनी लगन से क्यों सीख रहा था। वह उसके शब्दों को शंख की सीपी की तरह आत्मसात करता था।
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।
गुरु यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अनेकों शिष्यों को शिक्षा दी यहाँ तक कि द्रोण जैसे प्रतापी को भी परंतु कर्ण जैसा जिज्ञासु, निष्ठावान और श्रमशील शिष्य उन्होंने आज तक नहीं देखा।
यह अंश उस समय का है जब कर्ण को ज्ञात होता है कि वह जिस ज्ञान के बल पर महायुद्ध में अर्जुन का सामना करना चाहता है, वह ज्ञान उसने अपने गुरु परशुराम से छलपूर्वक प्राप्त किया था। अब परशुराम ने उसे श्राप दे दिया है कि आवश्यकता के समय उसका अर्जित ज्ञान निष्फल हो जाएगा। यह जानकर कर्ण आत्मग्लानि से भर उठता है और अपने मन की पीड़ा को गुरु के समक्ष व्यक्त करता है।