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मंगलवार, अक्टूबर 15, 2024

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् Sri Raghavendra Stotra

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श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् Sri Raghavendra Stotra

 

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् एक लोकप्रिय संस्कृत स्तोत्र है, जिसे महान संत श्री राघवेन्द्र स्वामी की स्तुति और गुणगान करने के लिए रचा गया है। श्री राघवेन्द्र स्वामी (1595-1671), जिन्हें उनके भक्त “गुरु राघवेन्द्र” के नाम से भी पुकारते हैं, एक महान हिन्दू दार्शनिक, तपस्वी और मध्वाचार्य के अनुयायी थे। वे द्वैत वेदांत के अनुयायी थे और उन्होंने मानवता की सेवा और धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार किया। यह स्तोत्र उनकी महानता, करुणा, और भक्ति मार्ग में उनके योगदान को समर्पित है।

श्री राघवेन्द्र स्वामी का जीवन परिचय:

श्री राघवेन्द्र स्वामी का जन्म कर्नाटक राज्य के बिन्दिगल नामक स्थान में हुआ था। उनका मूल नाम वेंकटनाथ था और वे एक विद्वान ब्राह्मण परिवार से आते थे। उन्होंने अपनी विद्वत्ता और भक्ति के कारण एक महान संत और आचार्य के रूप में ख्याति प्राप्त की। उन्हें विशेष रूप से उनकी तपस्या, चमत्कारिक शक्तियों और भक्तों के प्रति करुणा के लिए जाना जाता है।

श्री राघवेन्द्र स्वामी ने मानवता के कल्याण के लिए अपने जीवन को समर्पित किया और उन्होंने मंथन करते हुए अपने जीवन के अंतिम समय में मणिमन्तप नामक समाधि में प्रवेश किया। उनकी समाधि स्थल, जो कर्नाटक राज्य के मणत्रालय (Mantralayam) में स्थित है, आज भी भक्तों के लिए तीर्थ स्थल है, जहाँ प्रतिदिन हजारों भक्त उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए जाते हैं।

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् का महत्व:

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् श्री राघवेन्द्र स्वामी की स्तुति और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए रचा गया एक अत्यंत शक्तिशाली पाठ है। यह स्तोत्र भक्तों के जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करने और उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति करने के उद्देश्य से पाठ किया जाता है। यह स्तोत्र न केवल भौतिक जीवन में समृद्धि और शांति प्रदान करता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति में भी सहायक है।

स्तोत्र का रचयिता:

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् को श्री अप्पन्नाचार्य द्वारा रचा गया था, जो श्री राघवेन्द्र स्वामी के शिष्य और भक्त थे। अप्पन्नाचार्य ने अपने गुरु की महानता और चमत्कारों से प्रेरित होकर इस स्तोत्र की रचना की। यह स्तोत्र गुरु की करुणा और उनके भक्तों के प्रति उनके प्रेम का सजीव चित्रण करता है।

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् का पाठ कैसे करें?

इस स्तोत्र का पाठ श्रद्धा और भक्ति भाव से किया जाता है। श्री राघवेन्द्र स्वामी की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन प्रातः या संध्या के समय इसका पाठ विशेष रूप से शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करने से भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, और उन्हें जीवन में सफलता, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है।

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् का पाठ लाभ:

  1. कठिनाइयों का निवारण: जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की समस्याओं या बाधाओं से छुटकारा पाने के लिए यह स्तोत्र अत्यधिक प्रभावशाली है।
  2. स्वास्थ्य और समृद्धि: इस स्तोत्र के पाठ से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और समृद्धि प्राप्त होती है।
  3. आध्यात्मिक उन्नति: यह स्तोत्र भक्त के आत्मिक विकास और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में सहायक होता है।
  4. भक्ति और विश्वास में वृद्धि: नियमित रूप से इस स्तोत्र का पाठ भक्त के विश्वास और भक्ति को मजबूत करता है।

श्रीराघवेन्द्र स्तोत्रम् के श्लोक:

श्रीपूर्णबोधगुरुतीर्थपयोब्धिपारा कामारिमाक्षविषमाक्षशिरः स्पृशन्ती ।
पूर्वोत्तरामिततरङ्गचरत्सुहंसा देवाळिसेवितपराङ्घ्रिपयोजलग्ना ॥१॥

जीवेशभेदगुणपूर्तिजगत्सुसत्त्व नीचोच्चभावमुखनक्रगणैः समेता ।
दुर्वाद्यजापतिगिळैर्गुरुराघवेन्द्रवाग्देवतासरिदमुं विमलीकरोतु ॥२॥

श्रीराघवेन्द्रः सकलप्रदाता स्वपादकञ्जद्वयभक्तिमद्भ्यः ।
अघाद्रिसम्भेदनदृष्टिवज्रः क्षमासुरेन्द्रोऽवतु मां सदाऽयम् ॥३॥

श्रीराघवेन्द्रोहरिपादकञ्जनिषेवणाल्लब्धसमस्तसम्पत् ।
देवस्वभावो दिविजद्रुमोऽयमिष्टप्रदो मे सततं स भूयात् ॥४॥

भव्यस्वरूपो भवदुःखतूलसङ्घाग्निचर्यः सुखधैर्यशाली ।
समस्तदुष्टग्रहनिग्रहेशो दुरत्ययोपप्लवसिन्धुसेतुः ॥५॥

निरस्तदोषो निरवद्यवेषः प्रत्यर्थिमूकत्त्वनिदानभाषः ।
विद्वत्परिज्ञेयमहाविशेषो वाग्वैखरीनिर्जितभव्यशेषः ॥६॥

सन्तानसम्पत्परिशुद्धभक्तिविज्ञानवाग्देहसुपाटवादीन् ।
दत्त्वा शरीरोत्थसमस्तदोषान् हत्त्वा स नोऽव्याद्गुरुराघवेन्द्रः ॥७॥

यत्पादोदकसञ्चयः सुरनदीमुख्यापगासादिता सङ्ख्याऽनुत्तमपुण्यसङ्घविलसत्प्रख्यातपुण्यावहः ।
दुस्तापत्रयनाशनो भुवि महा वन्ध्यासुपुत्रप्रदो व्यङ्गस्वङ्गसमृद्धिदो ग्रहमहापापापहस्तं श्रये ॥८॥

यत्पादकञ्जरजसा परिभूषिताङ्गा यत्पादपद्ममधुपायितमानसा ये ।
यत्पादपद्मपरिकीर्तनजीर्णवाचस्तद्दर्शनं दुरितकाननदावभूतम् ॥९॥

सर्वतन्त्रस्वतन्त्रोऽसौ श्रीमध्वमतवर्धनः ।
विजयीन्द्रकराब्जोत्थसुधीन्द्रवरपुत्रकः ।
श्रीराघवेन्द्रो यतिराड् गुरुर्मे स्याद्भयापहः ॥१०॥

ज्ञानभक्तिसुपुत्रायुः यशः श्रीपुण्यवर्धनः ।
प्रतिवादिजयस्वान्तभेदचिह्नादरो गुरुः ।
सर्वविद्याप्रवीणोऽन्यो राघवेन्द्रान्नविद्यते ॥११॥

अपरोक्षीकृतः श्रीशः समुपेक्षितभावजः ।
अपेक्षितप्रदाताऽन्यो राघवेन्द्रान्नविद्यते ॥१२॥

दयादाक्षिण्यवैराग्यवाग्पाटवमुखाङ्कितः ।
शापानुग्रहशक्तोऽन्यो राघवेन्द्रान्नविद्यते ॥१३॥

अज्ञानविस्मृतिभ्रान्तिसंशयापस्मृतिक्षयाः ।
तन्द्राकम्पवचःकौण्ठ्यमुखा ये चेन्द्रियोद्भवाः ।
दोषास्ते नाशमायान्ति राघवेन्द्रप्रसादतः ॥१४॥

श्री राघवेन्द्राय नमः इत्यष्टाक्षर मन्त्रतः ।
जपिताद्भावितान्नित्यं इष्टार्थाः स्युर्नसंशयः ॥१५॥

हन्तु नः कायजान्दोषानात्मात्मीयसमुद्भवान् ।
सर्वानपि पुमर्थांश्च ददातु गुरुरात्मवित् ॥१६॥

इति कालत्रये नित्यं प्रार्थनां यः करोति सः ।
इहामुत्राप्तसर्वेष्टो मोदते नात्र संशयः ॥१७॥

अगम्यमहिमा लोके राघवेन्द्रो महायशाः ।
श्रीमध्वमतदुग्धाब्धिचन्द्रोऽवतु सदाऽनघः ॥१८॥

सर्वयात्राफलावाप्त्यै यथाशक्तिप्रदक्षिणम् ।
करोमि तव सिद्धस्य वृन्दावनगतं जलम् ।
शिरसा धारयाम्यद्य सर्वतीर्थफलाप्तये ॥१९॥

सर्वाभीष्टार्थसिद्ध्यर्थं नमस्कारं करोम्यहम् ।
तव सङ्कीर्तनं वेदशास्त्रार्थज्ञानसिद्धये ॥२०॥

संसारेऽक्षयसागरे प्रकृतितोऽगाधे सदा दुस्तरे ।
सर्वावद्यजलग्रहैरनुपमैः कामादिभङ्गाकुले ।

नानाविभ्रमदुर्भ्रमेऽमितभयस्तोमादिफेनोत्कटे ।
दुःखोत्कृष्टविषे समुद्धर गुरो मा मग्नरूपं सदा ॥२१॥

राघवेन्द्रगुरुस्तोत्रं यः पठेद्भक्तिपूर्वकम् ।
तस्य कुष्ठादिरोगाणां निवृत्तिस्त्वरया भवेत् ॥२२॥

अन्धोऽपि दिव्यदृष्टिः स्यादेडमूकोऽपि वाग्पतिः ।
पूर्णायुः पूर्णसम्पत्तिः स्तोत्रस्यास्य जपाद्भवेत् ॥२३॥

यः पिबेज्जलमेतेन स्तोत्रेणैवाभिमन्त्रितम् ।
तस्य कुक्षिगता दोषाः सर्वे नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥२४॥

यद्वृन्दावनमासाद्य पङ्गुः खञ्जोऽपि वा जनः ।
स्तोत्रेणानेन यः कुर्यात्प्रदक्षिणनमस्कृति ।
स जङ्घालो भवेदेव गुरुराजप्रसादतः ॥२५॥

सोमसूर्योपरागे च पुष्यार्कादिसमागमे ।
योऽनुत्तममिदं स्तोत्रमष्टोत्तरशतं जपेत् ।
भूतप्रेतपिशाचादिपीडा तस्य न जायते ॥२६॥

एतत्स्तोत्रं समुच्चार्य गुरोर्वृन्दावनान्तिके ।
दीपसंयोजनाज्ञानं पुत्रलाभो भवेद्ध्रुवम् ॥२७॥

परवादिजयो दिव्यज्ञानभक्त्यादिवर्धनम् ।
सर्वाभीष्टप्रवृद्धिस्स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥२८॥

राजचोरमहाव्याघ्रसर्पनक्रादिपीडनम् ।
न जायतेऽस्य स्तोत्रस्य प्रभावान्नात्र संशयः ॥२९॥

यो भक्त्या गुरुराघवेन्द्रचरणद्वन्द्वं स्मरन् यः पठेत् ।
स्तोत्रं दिव्यमिदं सदा नहि भवेत्तस्यासुखं किञ्चन ।
किं त्विष्टार्थसमृद्धिरेव कमलानाथप्रसादोदयात् ।
कीर्तिर्दिग्विदिता विभूतिरतुला साक्षी हयास्योऽत्र हि ॥३०॥

इति श्री राघवेन्द्रार्य गुरुराजप्रसादतः ।
कृतं स्तोत्रमिदं पुण्यं श्रीमद्भिर्ह्यप्पणाभिदैः ॥३१॥

इति श्री अप्पण्णाचार्यविरचितं श्रीराघवेन्द्रस्तोत्रं सम्पूर्णम्

 

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