सौंप दिये मन प्राण उसी को मुखसे गाते उसका नाम
सौंप दिये मन-प्राण उसीको, मुखसे गाते उसका नाम ।
कर्माकर्म चुकाकर सारे चलते हैं अब उसके धाम ॥
इंद्रियग्राम लेकर विषयोंको मरा करें इच्छा अनुसार ।
हम तो हैं अनुगत उसके ही, वही हमारा प्राणाधार ।।
प्रेम उसीके से प्रेमिक बन, गाते सब उसका गुण-गान ।
उसकी नासा पुष्प उसीके-से लेती नित उसकी घाण ॥
उसके प्राणोंकी व्याकुलता सत्र प्राणोंमें जाग रही ।
इसी हेतु बैठे योगासन वृत्ति उसीमें लाग रही ।।
उसके ही रससे रसिका बन रसना हो गइ दीवानी ।
विषयोंके रस बिरस हुए सब, नहीं कर सकै मनमानी ॥
आँख उसीकी, देख रहीं नित उसका रूप परम सुंदर ।
कान उसीके सुनते उसका सदा सुरीला कंठस्वर ।।
देह उसीकी करती नित आवेग-भरा परसन उससे ।
मन-प्राण भर उठे, दीखता सारा जगत भरा उससे ॥
सभी भुलाकर सोच रहा वह कहाँ ? कौन ? मेरा मनचोर ।
हृदय-सलिलके अगाध तलमें खोजूँगा, यदि पाऊँ छोर ।।
जब वह अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें दिखलाता ।
दोनों कूल डूब जाते हैं, कुछ भी नजर नहीं आता ।।
माता-पिता बही इम सबका, भाई-बंधु, पुत्र-दारा ।
है सर्वस्व वही सबका बस, उससे मरा विश्व सारा ।।
है वह जीवनसखा हमारा, है वह परम हमारा धन ।
अन्तस्तलमें बैठे हैं टुक करनेको उसके दर्शन ॥
जब वह दोनों भुजा उठाकर, अपनी ओर बुलाता है।
सब सुख तजकर मन उसके ही पीछे दौड़ा जाता है ॥
सब कुछ भूल नाच उठते हैं, हँसना औ रोना तजकर ।
चरण-कूलकी तरफ दौड़ते, भन्न जीर्ण नौका लेकर ।।
आशा सकल चहाकर उस प्यारेके अरुण चरणतलमें।
कूद पड़ेंगे, डूबे चाहे तर निकलें चाहे कूलस्य लमें ||
इस जबके जो कुछ भी सुख हैं, सो सब रहें उसीके पास ।
अरुण चरण के स्पर्शमात्रसे, मिटी हमारी सारी आस ।॥
किसी वस्तुकी चाइ नहीं है, मिटा चाइना, पाना, सब ।
बैठे हैं भव-तीर, भरोसा किये युगल-चरणोंका अब ॥
अब तो बंध-मोक्षको इच्छा व्याकुल कभी न करती है।
मुखड़ा ही नित-नव बंधन है, मुक्ति चरणसे झरती है ।।
चाहे अपने पास बिठा ले, चाहे दूर फेंक देवें ।
दूर रहें या पास रहें, हम संतत चरणमूल सेर्वे ॥



