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बुधवार, नवम्बर 5, 2025

सनातन सत चित आनंदा रूप – Sanaatan Sat Chit Aananda Roop

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सनातन सत चित आनंदा रूप

Sanaatan Sat Chit Aananda Roop

सनातन सत-चित-आनंदा रूप ।

अगुण, अज, अव्यय, अला, अनूवन्ना अगोचर, आदि, अनादि अपार ।

विश्व-व्यापक, विभु, विश्ववार न पाता जिनकी कोई थाह न बुद्धि-बल हो जाते गुमराह ।। १  ॥

संत श्रद्धालु, तर्क कर त्याग ।

सदा भजते मनके अनुराग ॥ २ ॥

समझकर विषवत् सारे भोग ।

त्याग, हो जाते स्वस्थ निरोग ॥

एक, बस, करते प्रियकी चाह ।

विचरते जगमें बेपरवाह ! ।। ३ ।।

घरा, धन, धाम, नाम, आराम ।

सभी कुछ राम विश्व-विश्राम ।।

देखते सबमें ऐसे भक्त ।

सतत रहते चिन्तन-आसक्त ।। ४ ।।

प्रेम-सागरकी तुंग तरंग ।

बाँध मर्यादाका कर भंग ।।

बहा ले जाती जब श्रुति-धार ।

संत तब करते प्रेम-पुकार ।। ५ ।।

प्रेमवश विद्युल हो श्रीराम ।

भक्त-मन-रक्षन अति अभिराम ॥

दिव्य मानब शरीरबर धार ।

अनोखा, लेते जग अवतार || ६ ||

मदन-मन-मोइन, मुनि-मन-हरण ।

सुरासुर सकल विश्व सुख-करण ॥

मधुर मञ्जुल मूरति युतिमान ।

विविध क्रीड़ा करते दयावश करते भगवान || ७ ||

जग-उद्धार । प्रेमसे, तथा किसीको मार ।।

विविध लीला विशाल शुचि चित्र ।

अलौकिक सुखकर सभी विचित्र || ८ ||

जिन्हें गा-सुनकर मोहागार ।

सहज तोड़ होते भव-वारिधि पार ।।

माया-बन्धन जग-जाल ।

देखते ‘सीय-राम’ सब काल ।। ९ ।।

वही सुन्दर मृदु युगल-स्वरूप ।

दिखाते रहो राम रघु-भूप ! ॥

‘सकल जग सीय-राममय’ जान ।

करूँ सबको प्रणाम, तज मान ॥१०॥

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