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बुधवार, जनवरी 22, 2025

रुचिर रसना तू राम क्यों न रटत

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रुचिर रसना तू राम क्यों न रटत भजन गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘विनय पत्रिका’ का एक प्रसिद्ध भजन है। यह भजन भगवान श्रीराम की महिमा और उनकी कृपा का गुणगान करता है। इस भजन में तुलसीदास जी ने मनुष्य को प्रभु श्रीराम का निरंतर स्मरण करने और उनके नाम की महिमा का महत्व समझाने का प्रयास किया है।

इस भजन की मुख्य पंक्तियाँ हैं:

रुचिर रसना तू राम क्यों न रटत।

इसका सरल अर्थ यह है कि “हे सुंदर जिह्वा! तू श्रीराम का नाम क्यों नहीं जपती?” इस पंक्ति के माध्यम से तुलसीदास जी समझा रहे हैं कि जो जिह्वा प्रभु श्रीराम का नाम जपने के लिए बनाई गई है, वह अन्य किसी भी प्रकार की बातों में उलझी क्यों है? वह श्रीराम के मधुर नाम का स्मरण क्यों नहीं करती?

भजन का मुख्य संदेश

इस भजन के माध्यम से तुलसीदास जी यह संदेश देना चाहते हैं कि जीवन में मनुष्य को प्रभु श्रीराम का नाम ही सबसे महत्वपूर्ण और कल्याणकारी मानना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि संसार की मोह-माया में फंसे बिना, व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य भगवान की भक्ति और उनके नाम का जाप बनाना चाहिए। श्रीराम का नाम ही वह अमृत है, जो मनुष्य को सारे दुखों से मुक्त कर सकता है और जीवन में सच्चे सुख की प्राप्ति करा सकता है।

श्रीराम नाम की महिमा

तुलसीदास जी ने अपने अनेक काव्यग्रंथों में श्रीराम के नाम की महिमा को विस्तृत रूप से बताया है। वे मानते हैं कि राम नाम में अनंत शक्तियाँ समाहित हैं, और यह नाम हर विपत्ति से रक्षा करने में सक्षम है। तुलसीदास जी के अनुसार, राम नाम का स्मरण करने से व्यक्ति को सांसारिक दुखों से मुक्ति मिलती है और परम आनंद की प्राप्ति होती है।

इस भजन में तुलसीदास जी ने सरल और प्रभावी शब्दों का प्रयोग किया है ताकि आम जनमानस इस संदेश को आसानी से समझ सके और अपने जीवन में राम नाम का महत्व जान सके।

भक्ति की भावना

भजन के पीछे की भावना गहरी भक्ति और समर्पण की है। तुलसीदास जी मानते थे कि जो व्यक्ति भगवान के नाम का स्मरण करता है, उसे जीवन में किसी अन्य चीज की आवश्यकता नहीं होती। यह भजन भी उसी विचारधारा को प्रकट करता है कि भगवान राम का नाम जपने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और आत्मा को शांति मिलती है।

रुचिर रसना तू राम क्यों न रटत – विनय पत्रिका

Ruchira Rasana Tu Rama Kyon Na Ratata Lyrics

रुचिर रसना तू राम राम क्यों न रटत ।

सुमिरत सुख सुकृत बढ़त अघ अमंगल घटत ॥

बिनु स्रम कलि-कलुष-जाल, कटु कराल कटत ।

दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥

जोग जाग जप बिराग तप सुतीर्थ अटत ।

बाँधिबेको भव-गयन्द रजकी रजु बटत ॥

परिहरि सुर-मुनि सुनाम गुंजा लखि लटत ।

लालच लघु तेरो लखि तुलसि तोहि हटत ॥

 

 

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