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सोमवार, जून 2, 2025

रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 5

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यह खंड रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित रश्मिरथी के तीसरे सर्ग का पाँचवाँ भाग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले का अत्यंत भावनात्मक और दार्शनिक संवाद प्रस्तुत किया गया है। यह संवाद केवल दो महापुरुषों के बीच का संवाद नहीं, बल्कि मानवीय नियति, सामाजिक अन्याय, कर्तव्य और भावनाओं का जटिल द्वंद्व है।

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रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 5

भगवान सभा को छोड़ चले,
करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर।

रथ चला परस्पर बात चली,
शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, “हाय,
अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है।

“मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल

“हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?

“सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे।

“चिंता है, मैं क्या और करूं?
शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है।

“पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?

“क्या अघटनीय घटना कराल?
तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर।

“माँ का सनेह पाया न कभी,
सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को।

“पर कौन दोष इसमें तेरा?
अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे।

“कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे।

“पद-त्राण भीम पहनायेगा,
धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी

“आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी।

“रण अनायास रुक जायेगा,
कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे।

“कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा “बड़ी यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

“जब ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?

“सेवती मास दस तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं।

“हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुलपाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी

“पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया

“माँ का पय भी न पीया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

“मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
कह ‘शूद्र’ पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं

“मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी

“पा पाँच तनय फूली-फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?

“क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडौँ को गले लगाती है?

“कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?

“सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं केसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता हृदय,
मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?

“मैं हुआ धनुर्थर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था

“उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
ताइना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?

“हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?

“अपना विकास अवरुद्र देख,
सारे समाज को क्ुद्व देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए

“कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है

“राजा रंक से बना कर के,
यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने

“है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा

“सच है मेरी है आस उसे,
मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?

“रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्र कहलाऊंगा

“मैं भी कुन्ती का एक तनय,
जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला

“मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

“कोई भी कहीं न चूकेगा,
सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊंगा
किसको क्या मुख दिखलाऊगा?

“जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को

“लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लीटना नहीं स्वीकार मुझै

“धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश – सुयश क्या है?

“सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ’ खोते हैं

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संभावना की राह: कृष्ण का प्रस्ताव

यह खंड तब आरंभ होता है जब भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर की सभा को त्यागकर युद्ध के संकेत के साथ बाहर आते हैं। सभा में शांति प्रस्ताव विफल हो चुका है। बाहर आकर वे कर्ण से मिलते हैं जो युद्ध को लेकर संकोच और आश्चर्य में है।

“भगवान सभा को छोड़ चले… हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, ले चढ़े उसे अपने रथ पर।”
यह दृश्य कर्ण के प्रति श्रीकृष्ण के स्नेह और सम्मान को दर्शाता है। वह जानते हैं कि कर्ण न केवल महान योद्धा है, बल्कि पांडवों का ज्येष्ठ भ्राता भी है।

शांति का अंतिम प्रस्ताव

रथ पर साथ चलते हुए कृष्ण युद्ध की विभीषिका का वर्णन करते हैं – रक्त की धाराएं, विधवाओं की पुकार, बच्चों की चीखें। वे बताते हैं कि युद्ध टालना संभव नहीं रहा, परंतु एक विकल्प अब भी है – यदि कर्ण पांडवों का साथ दे।

“चल होकर संग अभी मेरे, है जहाँ पाँच भ्राता तेरे…”
“कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ… तेरे बल बुद्धि शील में परम श्रेष्ठ…”

कृष्ण पांडवों की ओर से कर्ण को न केवल अपनाने की बात करते हैं, बल्कि उसे सम्राट बनाने का वादा भी करते हैं। भीम चरण धोएंगे, युधिष्ठिर चंवर डुलाएंगे, पांचाली पान खिलाएगी – ये दृश्य भावनात्मक हैं, राजनीतिक भी।

कर्ण का जवाब: तर्क, तृप्ति और त्याग

पर कर्ण, जो क्षण भर भावविह्वल होता है, फिर गंभीर हो जाता है। वह कृष्ण से पूरी विनम्रता से कहता है कि यह सब माया है।

“बड़ी यह माया है, जो कुछ आपने बताया है”

कर्ण, जो जीवन भर जाति और पहचान के अपमान को झेलता रहा, माँ कुन्ती की अस्वीकृति और समाज के तिरस्कार को नहीं भूला। वह जन्मदात्री माँ के व्यवहार से आहत है –

“धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?”

उसके लिए माँ राधा ही सच्ची माँ है, जिसने पाल-पोस कर उसे बनाया। वह कहता है कि राधा ने ममता दी, दुर्योधन ने सम्मान और जीवन दिया।

“कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया”
“पर कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन”

कर्तव्य और वफादारी की कसौटी

कर्ण स्पष्ट करता है कि वह दुर्योधन का ऋणी है –

“है ऋणी कर्ण का रोम रोम”
“यह जीवन दुर्योधन का है”

वह इसे केवल दोस्ती नहीं, एक नैतिक दायित्व मानता है।

“अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा, कायर कृतघ्न कहलाऊंगा”

कर्ण जानता है कि यदि वह कृष्ण की बात मानता है, तो युद्ध रुक सकता है, संसार बच सकता है, पर वह अपने आत्मसम्मान और निष्ठा के विरुद्ध जाकर केवल स्वयं को धोखा देगा।


आलोचनात्मक दृष्टिकोण

यह खंड साहित्यिक रूप से बहुत समृद्ध है –

  • काव्यात्मक सौंदर्य: वर्णन, उपमाएँ, रूपक अत्यंत प्रभावी हैं।
  • भावनात्मक गहराई: माँ, मित्रता, पहचान, कर्तव्य, नीति और नीति के टकराव को सुंदरता से चित्रित किया गया है।
  • दर्शन: यह भाग गीता-सदृश विचारधारा प्रस्तुत करता है – कर्तव्य ही धर्म है, भावनाओं से ऊपर।

कर्ण की त्रासदी

कर्ण के भीतर द्वंद्व है –

  1. माँ और राधा में – जन्म देने वाली और पालने वाली के बीच।
  2. जन्म से पांडव, कर्म से कौरव।
  3. समाज के तिरस्कार और दुर्योधन के प्रेम के बीच।

वह जानता है कि वह पांडवों का भ्राता है, पर अब बहुत देर हो चुकी है।

“नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं किस ओर चली”
“सूझता न कूल किनारा है”

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