‘रश्मिरथी’ में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने महाभारत के एक प्रमुख पात्र कर्ण के जीवन, संघर्ष और विचारों को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। यह काव्य आत्म-गौरव, धर्म, न्याय, समाज और मानवता के कई गहरे प्रश्नों को छूता है। षष्ठ सर्ग का यह अंश कर्ण की आत्मचिंतनशील मनःस्थिति को दर्शाता है, जब वह युद्ध, वीरता, मानवीयता और पौरुष के अर्थ को गहराई से समझने का प्रयास कर रहा है।
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 1 | Rashmirathi Sixth Sarg Bhaag 1
नरता कहते हैं जिसे, सत्तव
क्या वह केवल लड़ने में है?
पौरूष क्या केवल उठा खड्ग
मारने और मरने में है?
तब उस गुण को क्या कहें
मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?
लेकिन, तक भी मारता नहीं,
वह स्वंय विश्व-हित मरता है।
है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित
जो करता है प्राण हरण ?
या सबकी जान बचाने को
देता है जो अपना जीवन ?
चुनता आया जय-कमल आज तक
विजयी सदा कृपाणों से,
पर, आह निकलती ही आयी
हर बार मनुज के प्राणों से।
आकुल अन्तर की आह मनुज की
इस चिन्ता से भरी हुई,
इस तरह रहेगी मानवता
कब तक मनुष्य से डरी हुई ?
पाशविक वेग की लहर लहू में
कब तक धूम मचायेगी ?
कब तक मनुष्यता पशुता के
आगे यों झुकती जायेगी ?
यह ज़हर ने छोड़ेगा उभार ?
अंगार न क्या बूझ पायेंगे ?
हम इसी तरह क्या हाय, सदा
पशु के पशु ही रह जायेंगे ?
किसका सिंगार ? किसकी सेवा ?
नर का ही जब कल्याण नहीं ?
किसके विकास की कथा ? जनों के
ही रक्षित जब प्राण नहीं ?
इस विस्मय का क्या समाधान ?
रह-रह कर यह क्या होता है?
जो है अग्रणी वही सबसे
आगे बढ़ धीरज खोता है।
फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार
सबको बेचैन बनाती है,
नीचे कर क्षीण मनुजता को
ऊपर पशुत्व को लाती है।
हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड
लघु है, अब भी कुछ रीता है,
वय अधिक आज तक व्यालों के
पालन-पोषण में बीता है।
ये व्याल नहीं चाहते, मनुज
भीतर का सुधाकुण्ड खोले,
जब ज़हर सभी के मुख में हो
तब वह मीठी बोली बोले।