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बुधवार, जून 18, 2025

रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 3 | Rashmirathi Seventh Sarg Bhaag 3

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘रश्मिरथी’ का यह अंश, सप्तम सर्ग का तीसरा भाग, कर्ण और अर्जुन के बीच अंतिम महासंग्राम का अत्यंत मार्मिक, दार्शनिक और वीर रस से ओत-प्रोत चित्रण प्रस्तुत करता है। यह वह क्षण है जहाँ मानवीय चेतना, दैवी नियति और वीरता का चरम रूप एक साथ प्रकट होता है।

रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 3 | Rashmirathi Seventh Sarg Bhaag 3

यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान ।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को

ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के ।
ये चार फुल, मेरा अष्ृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी ।’

‘समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,
ये खेल जीत से बडे क्रिसी मकसद के दीवानों का हैं ।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं ।’

समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ‘प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो ।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है ।’

‘क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत्‌ शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है ।
राधेय ! काल यह पहंधूGच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो ।’

पार्थ को देख उच्छल-उमंग-पूरित उर-पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ ।
वोला ‘विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया ।

‘जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण ।
आओ, हम दोनों विशिख-वहि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें ।’

‘पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा ।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है ।’

कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हदय,
बोला, रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय ।
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं ।’

यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया ।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश ।

बोला, ‘शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा ।
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझी ।’

‘अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा ।’
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रीद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके ।’

संभलें जब तक भगवान्‌, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूक्रिछित हो गिरा पृथानन्दन ।
कर्ण का देख यह समर-शीर्य सडगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, ‘अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?’

पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द ।
प्रावृट्‌-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार ।

इस ओर कर्ण मत्तिण्ड-सहृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान ।
जूझता एक क्षण छोड, स्वतः, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द ।

है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन ।
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर ।

अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,
महा मदमत्त मानव- कुंजरों का;
नृगुण के मूर्तिमय अवतार ये दो,
मनुज-कुल के सुभग श्रृंगार ये दो।

परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,
ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,
मनुजता को न क्या उत्थान मिलता ?
अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता ?

मनुज की जाति का पर शाप है यह,
अभी बाकी हमारा पाप है यह,
बड़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,
अहँकृति में भ्रमित हो भूलते हैं ।

नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,
झगड़ कर विश्व का संहार करते ।
जगत को डाल कर निःशेष दुख में,
शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में ।

चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक ?
रहेगी शक्ति-वंचित शांति कबतक ?
मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा ?
अनल वीरत्व से कबतक झड़ेगा ?

विकृति जो प्राण में अंगार भरती,
हमें रण के लिए लाचार करती,
घटेगी तीव्र उसका दाह कब तक ?
मिलेगी अन्य उसको राह कब तक ?

हलाहल का शमन हम खोजते हैं,
मगर, शायद, विमन हम खोजते हैं,
बुझाते है दिवस में जो जहर हम,
जगाते फूंक उसको रात भर हम ।

किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का,
हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का ।
महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

चल रहा महाभारत का रण,
जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही
नर के भीतर की कुटिल आग ।

बाजियों-गजों की लोथों में
गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,
बह रहा चतुष्पद और द्विपद
का रुधिर मिश्र हो एक संग ।

गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से
लिये रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण
क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर ।

दोनों रणकृशल धनुर्धर नर,
दोनों समबल, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ
थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ ।

इस पूरे अंश में कर्ण की महाभावनात्मक गहराई, अर्जुन की वीरता, रणभूमि की भीषणता, और मानवता की त्रासदी को दिनकर ने इतनी तीव्रता, संवेदना और काव्यात्मक गहराई से प्रस्तुत किया है कि पाठक का मन अद्भुत विस्मय और करुणा से भर जाता है।

यह केवल कर्ण और अर्जुन की लड़ाई नहीं, यह धर्म और अधर्म, नियति और पुरुषार्थ, दान और प्रतिहिंसा, दर्शन और वीरता के बीच गूँजता एक महान संवाद है जिसने भारतीय साहित्य में ‘रश्मिरथी’ को अमर बना दिया है।

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