रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित रश्मिरथी का यह अंश महाभारत के युद्धभूमि की विभीषिका, वीरता, मानवीय मूल्यों और कर्ण की नैतिक चेतना को अद्भुत काव्यात्मक गहराई के साथ प्रस्तुत करता है। सप्तम सर्ग के इस दूसरे भाग में विशेष रूप से कर्ण के रण कौशल, आंतरिक द्वंद्व, मानवीय उदारता और उसके द्वारा निभाए जा रहे धर्म की झलक मिलती है। इस खंड में युद्ध की भीषणता के साथ-साथ कर्ण की महानता भी प्रकट होती है।
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 2 | Rashmirathi Seventh Sarg Bhaag 2
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल ।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक-समूह ।
हेषा रथाश्च की, चक्र-रोर, दन्तावल का वृहित अपार,
टंकार धुनुर्गुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार ।
खलमला उठा ऊपर खगोल, कलमला उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने लगे विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन ।
तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र,
या पहन ध्वंस की लपट लगा नाचने समर में स्वयं रुद्र ।
हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना प्रज्वलित मर्त्य जन होता है?
सुरपति से छले हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है?
अडङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण ।
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश ।
भागने लगे नरवीर छोड़ वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
‘रण में क्यों आये आज ?’ लोग मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे ।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण ।
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण ।
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह ।
गरजा अशङक हो कर्ण, ‘शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके ।
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज ।
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया ।
भागे वे रण को छोड, कर्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव,
कौतुक से बोला, ‘महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव ।
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं ।
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं ।
हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये ।’
भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, “कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया ।”
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,
खङ्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया ।
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में ।
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इडिगत पाकर ।
देखता रहा सब शलय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन,
रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?’
‘संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है ।’
हंसकर बोला राधेय, ‘शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी,
क्षयमान्, क्षनिक, भ॑गुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी ।
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं ।
पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से;
यह कथा नहीं अन्तःपुर की, बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है ।
सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को,
सबके समेत पडिकल सर में, मेरे भी चरण पडे क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
सप्तम सर्ग का यह भाग कर्ण की वीरता, धर्मनिष्ठा, आत्मबलिदान, और उसकी आंतरिक पीड़ा का गहन चित्रण है। वह सूतपुत्र होते हुए भी, मानवीय मूल्यों और आत्मसंयम का आदर्श बन जाता है। दिनकर ने कर्ण को केवल वीर नहीं, बल्कि एक महान आत्मा और धर्म के योद्धा के रूप में स्थापित किया है। युद्धभूमि में खड़ा यह योद्धा, जब शस्त्र से अधिक धर्म और करुणा से लड़ता है, तो वह इतिहास में अमर हो जाता है और यही कर्ण की सच्ची विजय है।