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रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 4 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 4

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रश्मिरथी

रश्मिरथी के चतुर्थ सर्ग का भाग 4 – जो आपने प्रस्तुत किया है – महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित इस महाकाव्य का एक अत्यंत भावनात्मक, वैचारिक और वीरता से ओतप्रोत अंश है। यह खंड उस निर्णायक क्षण को दर्शाता है जब देवता इंद्र, ब्राह्मण के वेश में कर्ण से उसका कवच और कुंडल याचना करते हैं, और कर्ण उन्हें दान देने से पहले अपने भीतर का सम्पूर्ण अंतर्द्वंद्व प्रकट करता है।

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रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 4 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 4

सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डोला,
नयन झुकाए हुए भिक्षु साहस समेट कर बोला,
धन की लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ।

यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें,
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें।,
‘कवच और कुंडल!’ विद्युत छू गयी कर्ण के तन को,
पर, कुछ सोच रहस्य, कहा उसने गंभीर कर मन को।

समझा, तो यह और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,
देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्रगती हैं।
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,
स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।

क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,
छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं।
दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा लेने को,
था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को।

केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा,
और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा,
फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,
जो भी हो, पर इस सुयोग को, हम क्यों अशुभ विचरे।

अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा,
शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूँगा।
पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों,
कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों।

यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे,
व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे।
उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवाली,
और इधर मैं लडू लिये यह देह कवच से खाली।

तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा,
इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा,
एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,
सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को।

यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,
जहर पीला मृगपति को उस पर पौरुष दिखलाना है।
यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,
जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है।

देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,
क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छल से?
हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,
सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है।

और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है,
तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है।
कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,
और काट कर उसे, जगत मे कर्णजयी कहलाए।

जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,
कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जायेगी मन में।
जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के बल से,
मुझे छोड़ रक्षित जन्मा था कौन कवच-कुंडल में।

मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।

अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था।
महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला,
किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही धकेला।

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इस भाग में कर्ण न केवल एक दानवीर के रूप में उभरता है, बल्कि एक न्यायप्रिय, नीतिज्ञ और वीर विचारक भी दिखाई देता है। उसका आत्मगौरव, नीति के प्रति आग्रह, युद्ध की मर्यादा के लिए आग्रह और अपनी विशिष्टता के त्याग की भावना – उसे अर्जुन से कहीं महान बनाते हैं।

यह अंश न केवल करुणा, वीरता और नीति से ओतप्रोत है, बल्कि समाज और धर्म के उन प्रश्नों को भी छूता है जो युगों से मानवता के केंद्र में हैं।

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