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शुक्रवार, जून 20, 2025

रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 7 | Rashmirathi Fifth Sarg Bhaag 7

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रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 7 | Rashmirathi Fifth Sarg Bhaag 7

“पाकर न एक को, और एक को खोकर,
मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।”
कह उठा कर्ण, “छह और चार को भूलो,
माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।

“जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी,
लेकिन होगी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।
रण में कट मर कर जो भी हानि सरहेंगे,
पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।

“कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से,
या मिली वीरगति मुझे पार्थ के कर से,
तुम इसी तरह गोदी की धनी रहोगी,
पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहोगी।

“पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,
वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,
मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊंगा,
जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊंगा।

“जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,
जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,
यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं
विधि के विरूद्व ही उसका रहा समर है।

“सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,
पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?
उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूंगा ?
है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा ?

“हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में,
वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,
राधेय न कुरूपति का सह-जेता होगा,
वह पुनः निःस्व दलितों का नेता होगा।

“है अभी उदय का लग्न, दृश्य सुन्दर है,
सब ओर पाण्डु-पुत्रों की कीर्ति प्रखर है।
अनुकूल ज्योति की घड़ी न मेरी होगी,
मैं आऊँगा जब रात अन्धेरी होगी।

“यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं लेने को,
आऊँगा कुल को अभयदान देने को।
परिभव, प्रदाह, भ्रम, भय हरने आऊंगा,
दुख में अनुजों को भुज भरने आऊंगा।

“भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर,
बाँटने दुःख आऊंगा हृदय लगाकर।
तम में नवीन आभा भरने आऊंगा,
किस्मत को फिर ताजा करने आऊंगा।

“पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है,
रक्षिका स्वयं अच्युत की बाँह जहाँ है,
उस भाग्यवान का भाग्य क्षार क्यों होगा ?
सामने किसी दिन अन्धकार क्यों होगा ?

“मैं देख रहा हूँ कुरुक्षेत्र के रण को,
नाचते हुए, मनुजो पर, महामरण को।
शोणित से सारी मही, क्लिन्न, लथपथ है,
जा रहा किन्तु, निर्बाध पार्थ का रथ है।

“हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा,
अर्जुन के हित बह रही उलट कर धारा।
शत पाश व्यर्थ रिपु का दल फैलाता है,
वह जाल तोड़ कर हर बार निकल जाता है।

“मैं देख रहा हूँ जननि ! कि कल क्या होगा,
इस महासमर का अन्तिम फल क्या होगा ?
लेकिन, तब भी मन तनिक न घबराता है,
उत्साह और दुगुना बढ़ता जाता है।

“बज चुका काल का पटह, भयानक क्षण है,
दे रहा निमन्त्रण सबको महामरण है।
छाती के पूरे पुरूष प्रलय झेलेंगे,
झंझा की उलझी लटें खींच खेलेंगे।

कुछ भी न बचेगा शेष अन्त में जाकर,
विजयी होगा सन्तुष्ट तत्व क्या पाकर ?
कौरव विलीन जिस पथ पर हो जायेंगे,
पाण्डव क्या उससे भिन्न राह पायेंगे ?

“है एक पन्थ कोई जीत या हारे,
खुद मरे, या कि, बढ़कर दुश्मन को मारे।
एक ही देश दोनों को जाना होगा,
बचने का कोई नहीं बहाना होगा।

“निस्सार द्रोह की क्रिया, व्यर्थ यह रण है,
खोखला हमारा और पार्थ का प्रण है।
फिर भी जानें किसलिए न हम रूकते हैं
चाहता जिधर को काल, उधर को झुकते हैं।

“जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है,
कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है।
बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर,
सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।

“फिर लहर, धार, बुहुद की नहीं निशानी,
सबकी रह जाती केवल एक कहानी।
सब मिल हो जाते विलय एक ही जल में,
मूर्तियाँ पिघल मिल जातीं धातु तरल में।

“सो इसी पुण्य-भू कुरुक्षेत्र में कल से,
लहरें हो एकाकार मिलेंगी जल से।
मूर्तियाँ खूब आपस में टकरायेंगी,
तारल्य-बीच फिर गलकर खो जायेंगी।

“आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे,
पर, काल बली के लिए सभी हैं छोटे,
छोटे होकर कल से सब साथ मरेंगे,
श्रुता न जानें कहाँ समेट धरेंगे ?

“लेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो,
जैसा भी हो, कल कल का प्रभाव आने दो
दीखती किसी भी तरफ न उजियाली है,
सत्य ही, आज की रात बड़ी काली है।

“चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं,
किरणों के अन्वेषी जब अकुलाते हैं,
तब धूमकेतु, बस, इसी तरह आता है,
रोशनी जरा मरघट में फैलाता है।”

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर,
दो बिन्दू अश्रु के गिर हगों से चूकर।
बेटे का मस्तक सूँघ, बड़े ही दुख से,
कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।

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