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रविवार, दिसम्बर 14, 2025

रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 4 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag 4

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यह अंश रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के महाकाव्य “रश्मिरथी” के प्रथम सर्ग का चौथा भाग है, जो महाभारत के उस ऐतिहासिक प्रसंग का सजीव चित्रण करता है जब कर्ण पहली बार अर्जुन को चुनौती देता है और अपनी वीरता, तेजस्विता तथा आत्मसम्मान का उद्घोष करता है।

रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 4 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag 4

‘पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से’
रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-पकाश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

अर्जुन बड़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।’

कृपाचार्य ने कहा वृथा तुम क्रुद्ठ हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।’

कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
सह न सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,
उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।

मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्रपच, चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।

इस अंश में कर्ण एक ऐसे नायक के रूप में उभरता है जो सामाजिक जंजीरों से मुक्त होकर कर्म, पराक्रम और आत्मबल के बल पर सम्मान चाहता है। यह अंश केवल कर्ण के चरित्र का चित्रण नहीं है, बल्कि एक समूची सामाजिक व्यवस्था पर तीखा प्रहार भी है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कर्ण के माध्यम से जाति, अन्याय और सामाजिक दंभ के विरुद्ध एक ओजस्वी विद्रोह की अभिव्यक्ति दी है।

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