पुत्र शोक सन्तप्त कभी कर दारुण दुख है देती
Putr Shok Santapt Kabhe Kar Daarun Dukh Hai Dete
पुत्र-शोक सन्तप्त कभी कर, दारुण दुख है देती ।
कभी अयश अपमान दानकर, मान सभी हर लेती ।।
कभी जगतके सुंदर सुख सब छीन, दीनमन करती ।
पथभ्रान्त कर कभी कठिन व्यवहार बिषम आचरती ।१।
पुत्र-कलत्र, राजवैभव बहु, मान कभी है देती ।
दारुण दुख-दारिद्रय-दीनता क्षणभरमें हर लेती ।।
पल-पलमें, प्रत्येक दिशामें सतत कार्य है करती ।
कड़वी-मीठी औषध देकर व्यथा हृदयकी हरती ॥२॥
पर वह नहीं कदापि सहज ही परिचय अपना देती ।
चमक तुरत चंचल चपला-सी दृग-अंचल ढक लेती ।।
जबतक इस घूँघटवालीका मुख नहिं देखा जाता ।
नाना भाँति जीव तबतक अकुलाता, कष्ट उठाता ॥३॥
जिस दिन यह आवरण दूर कर दिव्य द्युति दिखलाती।
परिचय दे, पहचान बताकर, शीतल करती छाती ।।
उस दिनसे फिर सभी वस्तु परिपूर्ण दीखती उससे ।
संसृतिहारिणि सुधा-वृष्टि हो रही निरंतर जिससे ||४||
सहज दयाकी मूरति देवीने जबसे अपनाया ।
महिमामय मुखमंडल अपनेकी दिखला दी छाया ।।
तबसे अभय हुआ, आकुलता मिटी, प्रेम-रस छलका ।
मनका उतरा भार सभी, अब हृदय हो गया हल्का ।।५।।
जिन विभीषिकाओंसे डरकर पहले, था थर्राता ।
उनमें भव्य दिव्य दर्शन कर अब प्रमुदित मुसुकाता ।।
भगवत्कृपा ! ‘अकिंचन’ तेरे ज्यों-ज्यों दर्शन पाता ।
त्यों-ही-त्यों आनंद-सिंधुमें गहरा डूया जाता ||६||