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बुधवार, अक्टूबर 8, 2025

प्रियतम न छिप सकोगे

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प्रियतम न छिप सकोगे | Priyatam Na Chhip Sakoge

प्रियतम ! न छिप सकोगे, चाहे सो वेष घर लो ।

अब हो चुकी है मुझको, पहचान वह तुम्हारी ।।

हूँदा तुम्हें अभीतक, मंदिर या मस्जिदोंमें ।

पर देख तौ न पाया वह माधुरी पियारी ।।

जिसने बताया जैसे, वैसे ही ढूँदा मैंने ।

भटका, कहीं न दीखे, चैतन्य ! चित्तहारी ।।

बस, बेतरह हराया, आया जो पास मेरे ।

तुमको बता-बताकर, शब्दोंकी मार मारी ॥

पर, देखकर न तुमको, था सोचता यों मनमें ।

है वा नहीं है जगमें सत्ता कहीं तुम्हारी ।।

संदेह जब यों होता, झाँकी-सी सार जाते ।

तिरछी नज़रसे हँसकर, छिपते तुरत बिहारी ! ॥

चिजली-सी दौड़ जाती, सन्-सन् शरीर करता ।

होतीं थीं इन्द्रियाँ सब, प्रखर प्रकाशकारी ।।

तब दीखता था मुझको, फैला प्रकाश सबमें ।

प्राणेश ! बस, तुम्हारा, वह दिव्य मोदकारी ॥

आँधी-सी एक आती, धन-कीर्ति-कामिनीकी ।

सारा प्रकाश ढकता, उस तमसे अंधकारी ।।

आ-आके इस तरह तुम, यों बार-बार जाते ।

मुझको न थी तुम्हारी पहचान पुण्यकारी ॥

आँखोंमें बैठ करके, तुम देखते हो सबको ।

कानोंमें बैठ सुनते तुम शब्द सौख्यकारी ॥

नाकोंसे गंध लेते, रसनासे चालते तुम ।

हो स्पर्श तुम ही करते, लीला विचित्र-कारी ॥

प्राणौमें, चित्त-मनमें, मसिमें, अहंमें, तूमें।

सबमें पसार करके तुम खेलते खिलारी ॥

बेढब नकाबपोशी रक्खी है सीख तुमने ।

अंदर समाके सबके छिपते, अजीब यारी ॥

जिसको दिखाया तुमने परदा हटाके अपना ।

वह रूप-रंग अनोखा, प्रेमोन्मन्त-कारी ॥

फिर भूलता नहीं वह, औ भूल भी न सकता ।

पहचान नित्य होती पारस्परिक तुम्हारी ॥

आँधी कभी न आती, आँखें न चौंधियातीं ।

वह दिव्य दृष्टि पाकर, होता सदा सुखारी ॥

सुख-दुःख, जय-पर। जय, तम-तेज, यश-अयशमें ।

दिखती उसे सभीमें छर्छाच मोहिनी तुम्हारी ॥

फिर देखता वह तुमसे सारा जगत भरा है।

अपनी जरा-सी सत्ता वह देखता, न न्यारी ॥

तुम हो समाये सबमें, वह है समाया तुममें ।

भय-भेद-भ्रांति मिटतो उस एक छनमें सारी ॥

रागगज़ल(Gazal)
रचनाश्री विष्णु चरण वन्दन ( Shree Vishnu Charan Vandan )
भजनश्री विष्णु भजन ( Shree Vishnu Bhajan )

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