Param Priy Mere Praanaadhaar
राग चाषेशी
(१)
परम प्रिय मेरे प्राणाधार ! स्वजनोंसे सम्बन्ध छूटते मैं निराश हो घबराया ।
पर निरुपाय, विवश हो तत्क्षण गृह नवीनमें मैं आया ।।
लगा पुरातन चिर नूतन सत्र, ‘मेरापन’ सबमें पाया.।
विस्मृत हुआ पुरातन, नूतनको ही मैंने अपनाया ।।
सबल, सुन्दर, सुसंगठित देह । जनक-जननीका अविरल स्नेह ||
प्रियाका मधुर वचन, मृदुहास । सरल संततिका रम्य विकास ||
कर रहा नित सुखका संचार । परम प्रिय मेरे प्राणाधार !
(२)
पिता चले, जननी भी बिछुड़ी, शक्ति और सौंदर्य गया ।
पत्नी भी चल बसी, शेष वयमें उसने भी न की दया ।।
धीरे-धीरे पुत्रोंसे भी सारा नाता टूट गया।
पूर्वजन्मकी भाँति पुनः यमदूतोंके आधीन भया ||
हुआ परवश, अधीर, बेहाल । चल सकी एक न मेरी चाल ॥
भटकते बीता अगणित काल । विविध देहोंमें क्षुद्र-विशाल ।।
अनोखा यह कैसा व्यवहार । परम प्रिय मेरे प्राणा धार !
(३)
बाल, युवा, वृद्धावस्था हैं तीनों पूरी हो जाती ।
मरण अनंतर पुनर्जन्मकी संतत है बारी आती ॥
घूम रही मायाचक्री, यह कभी नहीं रुकने पाती ।
पर ‘मैं-मैं’ की एक भावना कभी नहीं मेरी जाती ।।
भले हो कोई कैसा स्वाँग ।
पड़ गयी सत्र कुँओंमें भाँग ॥
इसीसे यह ‘मैं’-‘मैं’ की राग ।
गा रहा, कभी न सकता त्याग ।।
कौन यह ‘मैं’, कैसा आकार ।
परम प्रिय मेरे प्राणाधार !
(४)
‘मैं-मैं’ कहता भटक रहा, भवसागरकी चोटें सहता ।
नहीं परन्तु जानता ‘मैं’ है कौन तथा कैसे कहता ?
यदि शरीर ही ‘मैं’ होता, तो सबमें ‘मैं’ कैसे रहता !
होता ‘मैं’ मन-इन्द्रिय तो, इनको मेरे कैसे कहता ?
सुन रहा छिपकर सारी बात ।
देखता सभी घात-प्रतिघात ।।
हो गयी उससे अब पहचान ।
वही मैं, भेद गया हूँ जान ॥
उसीमें समा रहा तू यार !
परम प्रिय मेरे प्रणाधार !
(५)
समझा, इस ‘मैं’ में औ तुझमें किसी तरहका मेद नहीं।
इस विशाल ‘मैं’ की व्यापकतामें कोई विच्छेद नहीं।।
तुझसे भरे हुए इस ‘मैं’ में हुआ कभी भी खेद नहीं ।
सदानंद-परिपूर्ण, एकरस, कोई भेदाभेद नहीं ।।
बिगड़ता-बनता यह संसार । किंतु ‘तू’ चिर-नूतन, सुकुमार ।।
‘मैं’ तथा ‘तू’ का यह उपचार । सभी कुछ है तेरा विस्तार ।।
धन्य तू औ तेरा व्यापार ! परम प्रिय मेरे प्राणाधार !