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शनिवार, अगस्त 9, 2025

परम प्रिय मेरे प्राणाधार

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Param Priy Mere Praanaadhaar

राग चाषेशी

(१)

परम प्रिय मेरे प्राणाधार ! स्वजनोंसे सम्बन्ध छूटते मैं निराश हो घबराया ।

पर निरुपाय, विवश हो तत्क्षण गृह नवीनमें मैं आया ।।

लगा पुरातन चिर नूतन सत्र, ‘मेरापन’ सबमें पाया.।

विस्मृत हुआ पुरातन, नूतनको ही मैंने अपनाया ।।

सबल, सुन्दर, सुसंगठित देह । जनक-जननीका अविरल स्नेह ||

प्रियाका मधुर वचन, मृदुहास । सरल संततिका रम्य विकास ||

कर रहा नित सुखका संचार । परम प्रिय मेरे प्राणाधार !

(२)

पिता चले, जननी भी बिछुड़ी, शक्ति और सौंदर्य गया ।

पत्नी भी चल बसी, शेष वयमें उसने भी न की दया ।।

धीरे-धीरे पुत्रोंसे भी सारा नाता टूट गया।

पूर्वजन्मकी भाँति पुनः यमदूतोंके आधीन भया ||

हुआ परवश, अधीर, बेहाल । चल सकी एक न मेरी चाल ॥

भटकते बीता अगणित काल । विविध देहोंमें क्षुद्र-विशाल ।।

अनोखा यह कैसा व्यवहार । परम प्रिय मेरे प्राणा धार !

(३)

बाल, युवा, वृद्धावस्था हैं तीनों पूरी हो जाती ।

मरण अनंतर पुनर्जन्मकी संतत है बारी आती ॥

घूम रही मायाचक्री, यह कभी नहीं रुकने पाती ।

पर ‘मैं-मैं’ की एक भावना कभी नहीं मेरी जाती ।।

भले हो कोई कैसा स्वाँग ।

पड़ गयी सत्र कुँओंमें भाँग ॥

इसीसे यह ‘मैं’-‘मैं’ की राग ।

गा रहा, कभी न सकता त्याग ।।

कौन यह ‘मैं’, कैसा आकार ।

परम प्रिय मेरे प्राणाधार !

(४)

‘मैं-मैं’ कहता भटक रहा, भवसागरकी चोटें सहता ।

नहीं परन्तु जानता ‘मैं’ है कौन तथा कैसे कहता ?

यदि शरीर ही ‘मैं’ होता, तो सबमें ‘मैं’ कैसे रहता !

होता ‘मैं’ मन-इन्द्रिय तो, इनको मेरे कैसे कहता ?

सुन रहा छिपकर सारी बात ।

देखता सभी घात-प्रतिघात ।।

हो गयी उससे अब पहचान ।

वही मैं, भेद गया हूँ जान ॥

उसीमें समा रहा तू यार !

परम प्रिय मेरे प्रणाधार !

(५)

समझा, इस ‘मैं’ में औ तुझमें किसी तरहका मेद नहीं।

इस विशाल ‘मैं’ की व्यापकतामें कोई विच्छेद नहीं।।

तुझसे भरे हुए इस ‘मैं’ में हुआ कभी भी खेद नहीं ।

सदानंद-परिपूर्ण, एकरस, कोई भेदाभेद नहीं ।।

बिगड़ता-बनता यह संसार । किंतु ‘तू’ चिर-नूतन, सुकुमार ।।

‘मैं’ तथा ‘तू’ का यह उपचार । सभी कुछ है तेरा विस्तार ।।

धन्य तू औ तेरा व्यापार ! परम प्रिय मेरे प्राणाधार !

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