नटराजस्तोत्रं(Nataraja Stotram) भगवान शिव के नटराज रूप की स्तुति में रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। नटराज शिव का वह रूप है, जिसमें वे तांडव नृत्य करते हुए दिखाए गए हैं। इस रूप में भगवान शिव सृष्टि, पालन और संहार के प्रतीक माने जाते हैं। नटराज का यह स्वरूप भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
नटराजस्तोत्रं की रचना और महत्व Nataraja Stotram Importance
नटराजस्तोत्रं की रचना कई विद्वानों द्वारा की गई है, लेकिन इसके मूल स्त्रोत शैव ग्रंथों में मिलते हैं। यह स्तोत्र भगवान शिव के नटराज रूप की महिमा का वर्णन करता है। इसमें भगवान के तांडव नृत्य की गहराई और उसके पीछे छिपे आध्यात्मिक संदेश को उजागर किया गया है।
इस स्तोत्र को पाठ करने से साधक को भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। यह मन को शांत करता है, अहंकार और अज्ञान का नाश करता है और भक्त को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करता है।
नटराजस्तोत्रं का पाठ करने के लाभ Nataraja Stotram Benifits
- मन को शांति और स्थिरता प्रदान करता है।
- अहंकार और नकारात्मकता का नाश करता है।
- जीवन में ऊर्जा और सृजनशीलता का संचार करता है।
- साधक को आध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करता है।
- ध्यान और साधना में सहायता करता है।
नटराजस्तोत्रं का पाठ विधि
नटराजस्तोत्रं का पाठ प्रातःकाल या संध्याकाल में शांत मन से किया जाना चाहिए। शिवलिंग या नटराज की मूर्ति के सामने दीप जलाकर और गंगाजल अर्पित कर इसका पाठ करना श्रेष्ठ माना जाता है।
नटराजस्तोत्रं Nataraja Stotram Lyrics – Shambhu Natanam
चरणशृण्गरहित
अथ चरणशृण्गरहित नटराजस्तोत्रम.ह
सदञ्चित मुदञ्चित निकुञ्चितपदं झलझलं चलितमञ्जुकटकं
पतञ्जलि दृगञ्जनमनञ्जनमचञ्चलपदं जननभञ्जनकरम् ।
कदम्बरुचिमम्बरवसं परममम्बुदकदम्बक विडम्बक गलं
चिदम्बुधिमणिं बुधहृदम्बुजरविं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ १ ॥
हरं त्रिपुरभञ्जनमनन्तकृतकङ्कणमखण्डदयमन्तरहितं
विरिञ्चिसुरसंहतिपुरन्धर विचिन्तितपदं तरुणचन्द्रमकुटम् ।
परं पद विखण्डितयमं भसितमण्डिततनुं मदनवञ्चनपरं
चिरन्तनममुं प्रणवसञ्चितनिधिं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ २ ॥
अवन्तमखिलं जगदभङ्ग गुणतुङ्गममतं धृतविधुं सुरसरि-
-त्तरङ्ग निकुरुम्ब धृति लम्पट जटं शमनदम्भसुहरं भवहरम् ।
शिवं दशदिगन्तरविजृम्भितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं
हरं शशिधनञ्जयपतङ्गनयनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ३ ॥
अनन्तनवरत्नविलसत्कटककिङ्किणि झलं झलझलं झलरवं
मुकुन्दविधिहस्तगतमद्दल लयध्वनि धिमिद्धिमित नर्तनपदम् ।
शकुन्तरथ बर्हिरथ नन्दिमुख दन्तिमुख भृङ्गिरिटिसङ्घनिकटं भयहरम्
सनन्दसनकप्रमुखवन्दितपदं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ४ ॥
अनन्तमहसं त्रिदशवन्द्यचरणं मुनिहृदन्तर वसन्तममलं
कबन्ध वियदिन्द्ववनि गन्धवह वह्नि मखबन्धु रवि मञ्जुवपुषम् ।
अनन्तविभवं त्रिजगदन्तरमणिं त्रिनयनं त्रिपुरखण्डनपरं
सनन्दमुनिवन्दितपदं सकरुणं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ५ ॥
अचिन्त्यमलिबृन्दरुचिबन्धुरगलं कुरित कुन्द निकुरुम्ब धवलं
मुकुन्द सुरबृन्द बलहन्तृ कृतवन्दन लसन्तमहिकुण्डलधरम् ।
अकम्पमनुकम्पितरतिं सुजनमङ्गलनिधिं गजहरं पशुपतिं
धनञ्जयनुतं प्रणतरञ्जनपरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ६ ॥
परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दन्तिमुख षण्मुखममुं
मृडं कनकपिङ्गलजटं सनकपङ्कजरविं सुमनसं हिमरुचिम् ।
असङ्घमनसं जलधि जन्मगरलं कबलयन्तमतुलं गुणनिधिं
सनन्दवरदं शमितमिन्दुवदनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ७ ॥
अजं क्षितिरथं भुजगपुङ्गवगुणं कनकशृङ्गिधनुषं करलस-
-त्कुरङ्ग पृथुटङ्कपरशुं रुचिर कुङ्कुमरुचिं डमरुकं च दधतम् ।
मुकुन्द विशिखं नमदवन्ध्यफलदं निगमबृन्दतुरगं निरुपमं
सचण्डिकममुं झटितिसंहृतपुरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ८ ॥
अनङ्गपरिपन्थिनमजं क्षितिधुरन्धरमलं करुणयन्तमखिलं
ज्वलन्तमनलन्दधतमन्तकरिपुं सततमिन्द्रसुरवन्दितपदम् ।
उदञ्चदरविन्दकुलबन्धुशतबिम्बरुचि संहति सुगन्धि वपुषं
पतञ्जलिनुतं प्रणवपञ्जरशुकं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ९ ॥
इति स्तवममुं भुजगपुङ्गव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः
सदः प्रभुपदद्वितयदर्शनपदं सुललितं चरणशृङ्गरहितम् ।
सरः प्रभव सम्भव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शङ्करपदं
स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदम् ॥ १० ॥
इति श्रीपतञ्जलिमुनि प्रणीतं चरणशृङ्गरहित नटराज स्तवम् ॥