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सोमवार, अक्टूबर 7, 2024

नृसिंहस्तोत्रम् Narasimha Stotram

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नृसिंहस्तोत्रम् Narasimha Stotram

नृसिंहस्तोत्रम् भगवान नृसिंह को समर्पित एक प्राचीन और प्रभावशाली स्तोत्र है। यह स्तोत्र मुख्य रूप से भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार की स्तुति और उनकी कृपा की कामना के लिए गाया जाता है। नृसिंह अवतार में भगवान विष्णु ने आधे मानव और आधे सिंह के रूप में प्रकट होकर अपने परम भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी और दुष्ट राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था।

इस स्तोत्र का पाठ करने से भय, संकट और शत्रुओं से मुक्ति मिलती है। इसे विशेष रूप से उन परिस्थितियों में पढ़ा जाता है, जब व्यक्ति किसी बड़े संकट या समस्या से घिरा होता है। भक्त यह मानते हैं कि नृसिंह स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भगवान नृसिंह की कृपा प्राप्त होती है, जो जीवन की हर कठिनाई को दूर करने में सक्षम हैं।

नृसिंहस्तोत्रम् के कुछ प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं:

  1. संकटों से रक्षा: यह स्तोत्र भय और विपत्तियों से सुरक्षा प्रदान करता है। भगवान नृसिंह संकटों से घिरे भक्तों को शीघ्र ही मदद पहुंचाते हैं।
  2. शत्रुनाशक: यह स्तोत्र शत्रुओं और विरोधियों से बचाव के लिए अत्यंत प्रभावशाली माना जाता है। नृसिंह भगवान की शक्ति से व्यक्ति के शत्रुओं का नाश होता है।
  3. मन की शांति: इसका पाठ मानसिक तनाव को कम करता है और भक्त के मन को शांति और स्थिरता प्रदान करता है।
  4. धार्मिक और आध्यात्मिक उत्थान: नृसिंह स्तोत्र का नियमित पाठ व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा करता है और उसे धार्मिक मार्ग पर आगे बढ़ाता है।

नृसिंहस्तोत्रम् की रचना कई धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है, जिनमें से प्रमुख हैं ‘नृसिंह पुराण’ और ‘श्रीमद्भागवतम्’। यह स्तोत्र मंत्रों और स्तुतियों का संग्रह है जो भगवान नृसिंह की महिमा का गुणगान करता है। इसे आदिकवि वाल्मीकि से लेकर कई अन्य ऋषियों द्वारा गाया गया है।

स्त्रोत का नियमित पाठ सुबह या संध्या के समय करना विशेष रूप से शुभ माना जाता है। भक्त इसे पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ गाकर भगवान नृसिंह की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

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नृसिंहस्तोत्रम् Narasimha Stotram Lyrics

ब्रह्मोवाच ॥

नतोऽस्म्यनंताय दुरन्तशक्तये विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।
विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान्गुणैः स्वलीलया संदधतेऽव्ययात्मने ॥ १ ॥

श्रीरुद्र उवाच ॥

कोपकालो युगांतस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः ।
तस्सुतं पाह्यु पसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ २ ॥

इन्द्र उवाच ॥

प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा दैत्याक्रान्तं ह्रदयकमलं त्वद्‌गृहं प्रत्यबोधि ।
कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते मुक्तिस्तेषां नहि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ॥ ३ ॥

ऋषय ऊचुः ॥

त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्ज ॥
तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ॥ ४ ॥

पितर ऊचुः ॥

श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्दत्तानि तीर्थसमयेऽपिबत्तिलाम्बु ।
तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्तस्मै नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ॥ ५ ॥

सिद्धा उचुः ॥

यो नो गतिं योगसिद्धामसाधुरहार्षीद्योगतपोबलेन ।
नानादर्प तं नखैर्निर्ददार तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ॥ ६ ॥

विद्याधरा ऊचुः ॥

विद्यां पृथग्धारणयाऽनुराद्धां न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः ।
स येन संख्ये पशुवद्धतस्तं मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ॥ ७ ॥

नागा ऊचुः ॥

येन पापेन रत्‍नानि स्त्रीरत्‍नानि ह्रतानि नः ।
तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥

मनव ऊचुः ॥

मनवो वयं तव निदेशकारिणो दितिजेन देव परिभूतसेतवः ।
भवत खलः स उपसंह्रतः प्रभो करवाम ते किमनुशाधि किंकरान् ॥ ९ ॥

प्रजापतय ऊचुः ॥

प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः ।
स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते जगन्मंगलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ॥ १० ॥

गन्धर्वा ऊचुः ॥

वयं विभो ते नटनाट्यगायका येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः ।
स एषा नीतो भवता दशामिमां किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ॥ ११ ॥

चारणा ऊचुः ॥

हरे तवांघ्रिपङकजं भवापवर्गमाश्रिताः ।
यदेष साधुह्रच्छयस्त्वयाऽसुरः समापितः ॥ १२ ॥

यक्षा ऊचुः ॥

वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञैस्त इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् ।
स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते नरहर उपनीतः पंचतां पंचविंश ॥ १३ ॥

किंपुरुषा ऊचुः ॥

वयं किंपुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।
अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥ १४ ॥

वैतालिका ऊचुः ॥

सभासु सत्रेषु तवामलं यशो गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे ।
यस्तां व्यनैषीद्‌ भृशमेष दुर्जनो दिष्ट्या हतस्ते भगवन्यथामहः ॥ १५ ॥

किन्नरा ऊचुः ॥

वयमीश किन्नर गणास्तवानुगा दितिजेन विष्टिममुनाऽनुकारिताः ।
भवता हरे सवृजिनोऽवसादितो नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥ १६ ॥

विष्णुपार्षदा ऊचुः ॥

अद्वैतद्धरिनररूपमद्‌भुतं ते दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म ।
सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्तस्तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥ १७ ॥

इति श्रीमद्भागवतांगर्गतं नृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ।

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