श्री शंकराचार्यकृत उमामहेश्वर स्तोत्रम्
भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर में संतों और ऋषियों द्वारा रचित स्तोत्रों का विशेष महत्व है। इन्हीं में से एक प्रमुख स्तोत्र है श्री शंकराचार्यकृत उमामहेश्वरस्तोत्रम्। यह स्तोत्र भगवान शिव और उनकी अर्धांगिनी देवी पार्वती की स्तुति में रचित है, जिसे आदि शंकराचार्य ने अपनी अनुपम भक्ति और ज्ञान से सुसज्जित किया है।
आदि शंकराचार्य, जो कि अद्वैत वेदांत के प्रमुख प्रवर्तक माने जाते हैं, ने अपने जीवनकाल में अनेक स्तोत्रों की रचना की, जिनमें भगवद्गीता, उपनिषद, और ब्रह्मसूत्रों पर लिखी गई उनकी भाष्य भी शामिल हैं। उनके द्वारा रचित स्तोत्र न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि उनमें गहन दार्शनिक विचारधारा और भक्ति की अद्वितीय भावना भी प्रकट होती है। उमामहेश्वरस्तोत्रम् भी इसी श्रृंखला का एक अद्वितीय और महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जिसमें शिव और पार्वती की महिमा का वर्णन किया गया है।
इस स्तोत्र की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव और देवी पार्वती के दिव्य स्वरूप की एक साथ स्तुति की गई है। सामान्यतः शिव स्तोत्रों में केवल भगवान शिव की महिमा का वर्णन होता है, जबकि देवी स्तोत्रों में केवल पार्वती की। परन्तु उमामहेश्वरस्तोत्रम् में दोनों का एक साथ वर्णन किया गया है, जो यह दर्शाता है कि शिव और शक्ति एक ही सत्य के दो रूप हैं।
स्तुति के प्रत्येक श्लोक में भगवान शिव और देवी पार्वती के गुणों का वर्णन किया गया है। उदाहरण के लिए, एक श्लोक में कहा गया है:
“हे उमामहेश्वर, आप ही सृष्टि के आदिकारण और पालक हैं। आपकी कृपा से ही सृष्टि का संचालन होता है। आपके बिना इस संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। आपकी महिमा अपरम्पार है, जिसे समझ पाना सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं है।”
इस प्रकार, शंकराचार्य ने भगवान शिव को त्रिपुरारि, नीलकंठ, और वृषभध्वज जैसे नामों से संबोधित करते हुए उनकी महिमा का गुणगान किया है। इसके साथ ही, उन्होंने देवी पार्वती को गौरी, शिवा, भवानी और दुर्गा जैसे नामों से पुकारा है, जो उनके विभिन्न रूपों और शक्तियों को दर्शाते हैं।
उमामहेश्वरस्तोत्रम् में भक्ति की प्रधानता है, लेकिन इसके साथ ही इसमें गूढ़ दार्शनिक तत्त्व भी समाहित हैं। शिव और शक्ति की एकता को दर्शाते हुए शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार, शिव और शक्ति केवल प्रतीकात्मक रूप हैं, जो परमात्मा की असीम शक्ति और स्वरूप को दर्शाते हैं। शिव बिना शक्ति के शून्य हैं, और शक्ति बिना शिव के असंगत। यह द्वैत और अद्वैत का एक अद्वितीय संगम है, जो इस स्तोत्र के माध्यम से स्पष्ट होता है।
यह स्तोत्र न केवल भक्तों के लिए एक साधन है, जिसके द्वारा वे भगवान शिव और देवी पार्वती की कृपा प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि यह ध्यान और समाधि की साधना के लिए भी उपयुक्त है। शंकराचार्य ने इस स्तोत्र में जिस प्रकार से शब्दों का चयन किया है, वह न केवल काव्यात्मक सौंदर्य से परिपूर्ण है, बल्कि उसमें एक विशेष आध्यात्मिक शक्ति भी निहित है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मन की शांति और आत्मबल में वृद्धि होती है, और साधक को जीवन के विभिन्न संकटों से उबरने की शक्ति प्राप्त होती है।
उमामहेश्वरस्तोत्रम् की लोकप्रियता इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि इसे संपूर्ण भारत में विभिन्न भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित किया गया है। इसका पाठ मंदिरों, घरों और धार्मिक अनुष्ठानों में बड़े उत्साह के साथ किया जाता है। विशेषकर शिवरात्रि और नवरात्रि के अवसर पर इस स्तोत्र का पाठ अत्यधिक शुभ माना जाता है।
इसके अतिरिक्त, उमामहेश्वरस्तोत्रम् को पढ़ने और समझने से भक्तों को शिव और शक्ति की महिमा का गहन अनुभव होता है, और उनके जीवन में दिव्यता का संचार होता है। यह स्तोत्र न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान का अंग है, बल्कि यह आध्यात्मिक साधना का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है, जिसके द्वारा साधक अपने जीवन में आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
आखिर में, यह कहना उचित होगा कि श्री शंकराचार्यकृत उमामहेश्वरस्तोत्रम् एक अमूल्य धरोहर है, जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की समृद्धि का प्रतीक है। इस स्तोत्र में समाहित भक्ति, ज्ञान, और दार्शनिकता का अद्वितीय संगम इसे एक अनमोल रत्न बनाता है। शिव और शक्ति के इस दिव्य स्तोत्र का पाठ करने से न केवल मन की शांति और आत्मिक संतोष की प्राप्ति होती है, बल्कि यह भक्त को जीवन की कठिनाइयों से पार पाने की असीम शक्ति भी प्रदान करता है।
उमामहेश्वर स्तोत्रम् | Shri Mad Adi Shankaracharya – UmaMaheshwar Stotram
नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां
परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम् ।
नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥१॥
नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां
नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम् ।
नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥२॥
नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां
विरिञ्चिविष्ण्विन्द्रसुपूजिताभ्याम् ।
विभूतिपाटीरविलेपनाभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥३॥
नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां
जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम् ।
जंभारिमुख्यैरभिवन्दिताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥४॥
नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्यां
पन्ञ्चाक्षरीपञ्जररञ्जिताभ्याम् ।
प्रपञ्चसृष्टिस्थितिसंहृताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥५॥
नमः शिवाभ्यामतिसुन्दराभ्यां
अत्यन्तमासक्तहृदंबुजाभ्याम् ।
अशेषलोकैकहितंकराभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥६॥
नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां
कङ्कालकल्याणवपुर्धराभ्याम् ।
कैलासशैलस्थित देवताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥७॥
नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्यां
अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम् ।
अकुण्ठिताभ्यां स्मृतिसंभृताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥८॥
नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां
रवीन्दुवैश्वानरलोचनाभ्याम् ।
राकाशशाङ्काभमुखांबुजाभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥९॥
नमः शिवाभ्यां जटिलं धराभ्यां
जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम् ।
जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥१०॥
नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्यां
बिल्वच्छदामल्लिकदामभृद्भ्याम् ।
शोभावतीशान्तवतीश्वराभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥११॥
नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्यां
जगत्त्रयीरक्षणबद्धहृद्भ्याम् ।
समस्तदेवासुरपूजिताभ्यां
नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥१२॥
स्तोत्रं त्रिसंध्यं शिवपार्वतीभ्यां
भक्त्या पठेत् द्वादशकं नरो यः ।
स सर्व सौभाग्यफलानि भुङ्क्ते
शतायुरन्ते शिवस्लोकमेति ॥१३॥