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बुधवार, अक्टूबर 16, 2024

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम्

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श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् (ब्रह्मानन्दविरचितम्) Shri Vishnu Mahimna Stotram

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् भगवान विष्णु की महिमा का गुणगान करने वाला एक प्रमुख स्तोत्र है। यह स्तोत्र भगवान विष्णु की अद्वितीय शक्ति, उनकी कृपा और उनके द्वारा सृष्टि के पालन एवं रक्षा के कार्यों की महत्ता को उजागर करता है। हिंदू धर्म में विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में पूजा जाता है, और इस स्तोत्र के माध्यम से भक्त उनके प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा प्रकट करते हैं।

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् का उद्देश्य:

  1. भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन: यह स्तोत्र भगवान विष्णु की विभिन्न लीलाओं और उनके दिव्य गुणों का वर्णन करता है। इसे पढ़ने और समझने से भक्तों को भगवान विष्णु की व्यापकता और उनकी अनंत शक्तियों का ज्ञान प्राप्त होता है।
  2. आध्यात्मिक उन्नति: इस स्तोत्र का नियमित पाठ भक्तों को आध्यात्मिक शांति और मानसिक संतुलन प्रदान करता है। यह जीवन के कठिन समय में भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का एक माध्यम है।
  3. संपूर्ण विश्व का पालन: श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् में भगवान विष्णु को संपूर्ण सृष्टि का पालनकर्ता और रक्षक माना गया है। वे ही संसार की सुरक्षा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए विभिन्न अवतारों में अवतरित होते हैं, जैसे कि राम और कृष्ण।
  4. पापों का नाश: इस स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के पापों का नाश होता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णु की कृपा से सभी बाधाएं दूर होती हैं और जीवन में सुख-समृद्धि का वास होता है।

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् का महत्व:

  • भक्तों के लिए प्रेरणा: विष्णु महिम्न स्तोत्रम् भगवान विष्णु की लीला, उनके दयालुता और उनके अनुग्रह का वर्णन करता है। यह स्तोत्र भक्तों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है, जो उन्हें जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करने और भगवान की शरण में रहने की प्रेरणा देता है।
  • धार्मिक अनुष्ठानों में उपयोग: इस स्तोत्र का पाठ धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा-पाठ और विष्णु-आराधना के दौरान किया जाता है। यह स्तोत्र न केवल भगवान की महिमा का गुणगान करता है, बल्कि भक्तों को उनके संरक्षण में रखने का आश्वासन भी देता है।
  • मोक्ष प्राप्ति: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, और उसे मोक्ष प्राप्त होता है। विष्णु भगवान की अनंत कृपा से व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।
  • रोज़ाना पाठ से लाभ: जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करता है, उसे जीवन में मानसिक शांति, सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। यह जीवन में आने वाले दुःखों और बाधाओं को दूर करता है और ईश्वर की कृपा से जीवन की सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है।

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् का पाठ कैसे करें:

  1. सुबह के समय स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
  2. भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर के सामने दीप जलाकर बैठें।
  3. मन को शुद्ध और एकाग्र करके भगवान विष्णु का ध्यान करें।
  4. श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करें।

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् (ब्रह्मानन्दविरचितम्) Shri Vishnu Mahimna Stotram

महिम्नस्ते पारं विधिहरफणीन्द्रप्रभृतयो
विदुर्नाद्याप्यज्ञश्चलमतिरहं नाथ नु कथम् ।
विजानीयामद्धा नलिननयनात्मीयवचसो
विशुद्ध्यै वक्ष्यामीषदपि तु तथापि स्वमतितः ॥१॥

यदाहुर्ब्रह्मैके पुरुषमितरे कर्म च परेऽ
परे बुद्धञ्चान्ये शिवमपि च धातारमपरे ।
तथा शक्तिं केचित् गणपतिमुतार्कञ्च सुधियो
मतीनां वै भेदात्त्वमसि तदशेषं मम मतिः ॥२॥

शिवः पादांभस्ते शिरसि धृतवानादरयुतं
तथा शक्तिश्चासौ तव तनुजतेजोमयतनुः ।
दिनेशं चैवामुं तव नयनमूचुस्तु निगमा-
स्त्वदन्यः को ध्येयो जगति किल देवो वद विभो ॥३॥

क्वचिन्मत्स्यः कूर्मः क्वचिदपि वराहो नरहरिः
क्वचित् खर्वो रामो दशरथसुतो नन्दतनयः ।
क्वचिद्बुद्धः कल्की विहरसि कुभारापहृतये
स्वतन्त्रोऽजो नित्यो विभुरपि तवाक्रीडनमिदम् ॥४॥

हृताम्नायेनोक्तं स्तवनवरमाकर्ण्य विधिना
द्रुतं मात्स्यं धृत्वा वपुरजर शंखासुरमथो ।
क्षयं नीत्वा मृत्योर्निगमगणमुद्धृत्य जलधे-
रशेषं संगुप्तं जगदपि च वेदैकशरणम् ॥५॥

निमज्जन्तं वार्द्धौ नगवरमुपालोक्य सहसा
हितार्थं देवानां कमठवपुषाविश्य गहनम् ।
पयोराशिं पृष्ठे तमजित सलीलं धृतवतो
जगद्धातुस्तेऽभूत्किमु सुलभभाराय गिरिकः ॥६॥

हिरण्याक्षः क्षॊणीमविशदसुरो नक्रनिलयं
समादायामर्त्यैः कमलजमुखैरंबरगतैः ।
स्तुतेनानन्तात्मन्नचिरमाभाति स्म विधृता
त्वया दंष्ट्राग्रेऽसाववनिरखिला कन्दुक इव ॥७॥

हरिः क्वास्तीत्युक्ते दनुजपतिनाऽऽपूर्य़निखिलं
जगन्नादैः स्तंभान्नरहरिशरीरेण करजैः
समुत्पत्याशूरस्यसुरवरमादारितवत-
स्तव ख्याता भूमन् किमु जगति नो सर्वगतता ॥८॥

विलोक्याऽजं द्वार्गं कपटलघुकायं सुररिपु-
र्निषिद्धोऽपि प्रादादसुरगुरुणात्मीयमखिलम् ।
प्रसन्नस्तद्भक्त्या त्यजसि किल नाद्यापि भवनं
बलेर्भक्ताधीन्यं तव विदितमेवामरपते ॥९॥

समाधावासक्तं नृपतितनयैर्वीक्ष्य पितरं
हतं बाणैः रोषाद् गुरुतरमुपादाय परशुम् ।
विनाक्षत्रं विष्णो क्षितितलमशेषं कृतवतो
सकृत् किं भूभारोद्धरणपटुता ते न विदिता ॥१०॥

समाराध्योमेशं त्रिभुवनमिदं वासवमुखं
वशे चक्रे चक्रिन्नगणयदनिशं जगदिदम् ।
गतोऽसौ लंकेशस्त्वचिरमथ ते बाणविषयं
न केनाप्तं त्वत्तः फलमविनयस्यासुररिपो ॥११॥

क्वचिद्दिव्यं शौर्यं क्वचिदपि रणे कापुरुषता
क्वचिद्गीताज्ञानं क्वचिदपि परस्त्रीविहरणम् ।
क्वचिन्मृत्स्नाशित्वं क्वचिदपि वैकुण्ठविभव-
श्चरित्रं ते नूनं शरणद! विमोहाय कुधियाम् ॥१२॥

न हिंस्यादित्येव ध्रुवमवितथं वाक्यमबुधै-
र्यथाग्नीषोमीयं पशुमितितु विप्रैर्निगदितम् ।
तवैतन्नास्थानेऽसुरगणविमोहाय गदतः
समृद्धिर्नीचानां नयकर हि दुःखाय जगतः ॥१३॥

विभागे वर्णानां निगमनिचये चावनितले
विलुप्ते सञ्जातो द्विजवरगृहे शंभलपुरे ।
समारुह्याश्वं त्वं लसदसिकरो म्लेच्छनिकरान्
निहन्तास्युन्मत्तान् किल कलियुगान्ते युगपते ॥१४॥

गभीरे कासारे जलचरवराकृष्टचरणो
रणेऽशक्तो मज्जन्नभयद जलेऽचिन्तयदसौ ।
यदा नागेन्द्रस्त्वां सपदि पदपाशादपगतो
गतःस्वर्गं स्थानं भवति विपदां ते किमु जनः ॥१५॥

सुतैः पृष्टो वेधाः प्रतिवचनदानेऽप्रभुरसा-
वथात्मन्यात्मानं शरणमगमत्त्वां त्रिजगताम् ।
ततस्तेऽस्तातङ्का ययुरथ मुदं हंसवपुषा
त्वया ते सार्वज्ञं प्रथितममरेशेह किमु नो ॥१६॥

समाविद्धो मातुर्वचनविशिखैराशु विपिनं
तपः कृत्वा गत्वा तव परम तोषाय परमं ।
ध्रुवो लेभे दिव्यं पदमचलमल्पेऽपि वयसि
किमस्त्यस्मिंलोके त्वयि वरद तुष्टे दुरधिगम् ॥१७॥

वृकाद्भीतस्तूर्णं स्वजनभयभित्त्वां पशुपति-
र्भ्रमंलोकान् सर्वान् शरणमुपयातेऽथ दनुजः ।
स्वयं भस्मीभूतस्तववचनभङ्ग्युद्गतमतिः
रमेश हे माया तव दुरनुमेयाऽखिलजनैः ॥१८॥

हृतं दैत्यैर्दृष्ट्वाऽमृतघटमजय्यैस्तु नयतः
कटाक्षैः सम्मोहं युवतिवरवेषेण दितिजान् ।
समग्रं पीयूषं सुभगसुरपूगायददतः
समस्यापि प्रायस्तव खलु हि भृत्येष्वभिरतिः ॥१९॥

समाकृष्टा दुष्टैर्द्रुपदतनयाऽलब्धशरणा
सभायां सर्वात्मंस्तव चरणमुच्चैरुपगता ।
समक्षं सर्वेषामभवदचिरं चीरनिचयम्
स्मृतेस्ते साफल्यं नयनविषयं नो किमु सतां ॥२०॥

वदन्त्येके स्थानं तव वरद! वैकुण्ठमपरे
गवां लोकं लोकं फणिनिलयपातालमितरे ।
तथान्ये क्षीरोदं हृदयनलिनं चापि तु सतां
न मन्ये तत्स्थानं त्वहमिह च यत्रासि न विभो ॥२१॥

शिवोऽहं रुद्राणामहममरराजो दिविषदां
मुनीनां व्यासोऽहं सुरवर समुद्रोऽस्मि सरसाम् ।
कुबेरो यक्षाणामिति तव वचो मन्दमतये
न जाने तज्जातं जगति ननु यन्नासि भगवन् ॥२२॥

शिरो नाको नेत्रे शशिदिनकरावंबरमुरो
दिशः श्रोत्रे वाणी निगमनिकरस्ते कटिरिला ।
अकूपारो वस्तिश्चरणमपि पातालमिति वै
स्वरूपं तेऽज्ञात्वा नृतनुमवजानन्ति कुधियः ॥२३॥

शरीरं वैकुण्ठं हृदयनलिनं वाससदनं
मनोवृत्तिस्तार्क्ष्यो मतिरियमथॊ सागरसुता ।
विहारस्तेऽवस्थात्रितयमसवः पार्षदगणो
न पश्यन्त्यज्ञास्त्वमिह बहिरहो याति जनता ॥२४॥

सुघोरं कान्तारं विशति च तटाकं सुगहनं
तथोत्तुङ्गं शृङ्गं सपदि च समारोहति गिरेः ।
प्रसूनार्थं चेतोऽम्बुजममलमेकं त्वयि विभो
समर्प्याज्ञस्तूर्णंबत न च सुखं विन्दति जनः ॥२५॥

कृतैकान्तावासा विगतनिखिलाशाः शमपराः
जितश्वासोच्छ्‍वासास्त्रुटितभवपाशाः सुयमिनः ।
परं ज्योतिः पश्यन्त्यनघमभिपश्यन्तु मम तु
श्रियाश्लिष्टं भूयान्नयनविषयं ते किल वपुः ॥२६॥

कदा गंगोत्तुङ्गामलतरतरंगाच्छपुलिने
वसन्नाशापाशादखिलखलदाशादपगतः ।
अये लक्ष्मीकान्तांबुजनयन ताताऽमरपते
प्रसीदेत्याजल्पन्नमरवर नेष्यामि समयम् ॥२७॥

कदा शृङ्गैः स्फीते मुनिगणपरीते हिमनगे
द्रुमावीते शीते सुरमधुरगीते प्रतिवसन् ।
क्वचिद्ध्यानासक्तो विषयसुविरक्तो भवहरं
स्मरंस्ते पादाब्जं जनिहर समेष्यामि विलयम् ॥२८॥

सुधापानं ज्ञानं न च विपुलदानं न निगमो
न यागो नो योगो न च निखिलभोगोपरमणम् ।
जपो नो नो तीर्थव्रतमिह न चोग्रं त्वयि तपो
विना भक्तिं तेऽलं भवभयविनाशाय मधुहन् ॥२९॥

नमः सर्वेष्टाय श्रुतिशिखरदृष्टाय च नमो
नमोऽसंश्लिष्टाय त्रिभुवननिविष्टाय च नमः ।
नमो विस्पष्टाय प्रणवपरिमृष्टाय च नमो
नमस्ते सर्वात्मन् पुनरपि पुनस्ते मम नमः ॥३०॥

कणान् कश्चिद्वृष्टेर्गणननिपुणस्तूर्णमवने-
स्तथाऽशेषान्पांसूनमित कलयेच्चापि तु जनः ।
नभः पिण्डीकुर्यादचिरमपिचेच्चर्मवदिदं
तथापीशासौ ते कलयितुमलं नाखिलगुणान् ॥३१॥

क्व माहात्म्यं सीमोझितमविषयं वेदवचसां
विभो मेऽतो चेतः क्वच विविधतापाहतमिदम् ।
मयेदं यत्किञ्चिद्गदितमथ बाल्येन तु गुरो
गृहाणैतच्छुद्धार्पितमिह न हेयं हि महताम् ॥३२॥

इति हरिस्तवनं सुमनोहरं परमहंसजनेन समीरितं
सुगमसुन्दरसारपदास्पदं तदिदमस्तुहरेरनिशं मुदे ॥३३॥

गदारथांगांबुजकंबुधारिणो रमाश्लिष्टतनोस्तनोतु नः ।
बिलेशयाधीशशरीरशायिनः शिवस्तवोजस्रमयं परं हरेः ॥३४॥

पठेदिदं यस्तु नरः परस्तवं समाहितोघौघघनप्रभञ्जनम् ।
स विन्दतेत्राखिल भोगसंपदो महीयते विष्णुपदे ततो ध्रुवम् ॥३५॥

श्री विष्णु महिम्न स्तोत्रम् विष्णु भक्तों के लिए अत्यधिक पवित्र और महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इसे पढ़ने से न केवल व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, बल्कि भगवान विष्णु की कृपा से सभी प्रकार के संकटों का नाश भी होता है।

 

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