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गुरूवार, दिसम्बर 25, 2025

इधर उधर क्यों भटक रहा मन | Idhar Udhar Kyon Bhatak Raha Man

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इधर उधर क्यों भटक रहा मन

Idhar Udhar Kyon Bhatak Raha Man

इधर-उधर क्यों भटक रहा मन- भ्रमर, भ्रांत, उद्देश्यविहीन ।

क्यों अमूल्य अवसर जीवनका ब्यर्थ खो रहा तू, ‘मतिहीन ॥

क्यों कुत्रास-कंटकयुत बिषमय बिषय बेलिपर ललचाता ।

क्यों सहता आघात सतत क्यों दुःख निरंतर है पाता ।।

विश्व-बाटिकाके प्रति-पदपर भटक भले ही, हो अति दीन ।

खाकर ठोकर द्वार-द्वारपर हो अपमानित, हीन-मलीन ।

सह ले कुछ संताप और, यदि तुझको घ्यान नहीं होता।

दो निराश, निर्लज भ्रमण कर फिर चाहे खाते गोता ।।

बिषमय बिषय-बेलिको चाहे कमल समझकर हो रह लीन ।

चाहे जहर भरे भोगौको सलिल समझकर बन जा मीन ।।

पर न जहाँतक तुझे मिलेगा पावन प्रभु-पद-पद्म-पराग ।

होगा नहीं जहाँतक उसमें अनुपम तब अनन्य अनुराग ।।

कर न बुकेगा तू जबतक अपनेको, बस, उसके आधीन ।

होगा नहीं जहाँतक तू स्वर्गीय सरस सरसिज आसीन ।।

नहीं मिटेगा ताप वहाँतक, नहीं दूर होगी यह भ्रांति ।

नहीं मिलेगी शांति नहीं मिलेगी सुखप्रद भीषण श्रांति ॥

इससे हो सत्बर, सुन्दर हरि चरण-सरोरुहमें तल्लीन ।

कर मकरंद मधुर आस्वादन पापरहित हो पावन’ पीन ॥

भय-भ्रम-भेद त्यागकर, सुखमय सतत सुधारस कर तू पान ।

शांत-अमर हो, शरणद चरण- युगलका कर नित गुण-गण-गान ॥

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