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बुधवार, नवम्बर 5, 2025

सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम पराग

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सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम पराग लीरिक्स

Sakuch Bhare Adhakhile Sumanamen Chhipakar Rahata Prem Paraag Lyrics

सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम-पराग ।

नव-दर्शनमें मुग्ध प्राणका होता मूक मधुर अनुराग ॥

भय-लजा, संकोच-सहम, सहसा वाणीका निपट निरोध ।

वाचा-रहित, नेत्र-मुख अवनत, हास्यहीन, बालकवत् क्रोध ॥ १ ॥

जो उसने था किया, इसी स्वाभाविक रसका ही ब्यवहार ।

तो देना था तुम्हें चाहिये उसे हर्षसे अपना प्यार ||

हृदयंगम करना आवश्यक था वह सरल प्रणयका भाव ।

नहीं तिरस्कृत करना था नव- प्रेमिकका वह गूँगा चाव ॥ २ ॥

प्रथम मिलनमें ही क्या समुचित है समस्त संकोच-विनाश ।

क्या उससे वस्तुतः नहीं होता नबीन मधु-रसका नाश ।॥

नव कलिकाके लिये चाहना असमयमें ही पूर्ण विकास ।

क्या है र्नाहं अप्राकृत और असंगत उससे ऐसी आस  ॥ ३ ॥

क्या नववधू कभी मुखरा बन कर सकती प्रियसे परिहास ।

क्या वह मूर्खा या संदिग्धा बन सह सकती मिथ्या त्रास  ।।

क्या वह प्रौढ़ा सदृश खोल अवगुंठन कर सकती रस-भंग।

क्या बहने देती, मर्यादा तजकर, सहसा हास्य-तरंग  || ४ ॥

क्या ‘मूक।स्वादनवत्’ होता नहीं प्रेमका असली रूप।

क्या उसमें है नहीं छलकता प्रेम-पयोधि गंभीर अनूप  ॥

क्या है नहीं प्रसन्न इष्टको मानस-पूजा ही करती ।

क्या वह नहीं बाह्य पूजासे बढ़कर इष्ट-हृदय हरती ॥ ५ ॥

यदि नव प्रेमिकने तुमको पूजा केवल मनसे ही नाथ।

स्तंभित, कंपित, मुग्ध हर्षसे कह-सुन कुछ भी सका न साथ ।।

क्या इससे हे प्रेमिकवर ! प्रभु ! हुआ तुम्हारा कुछ अपमान ।

क्या इसमें अपराध मानते सरल भक्तका ? हे भगवान  ॥ ६ ॥

यदि ऐसा है नहीं देव ! तो क्यों फिर होते अंतर्द्धान ।

क्यों दर्शनसे वंचित करते, क्यों दिखलाते इतना मान  ॥

क्यों आँखोंसे ओझल होते, पता नहीं क्यों बतलाते ।

क्यों भक्तोंको सुख पहुँचाने नहीं शीघ्र सम्मुख आते  ॥ ७ ॥

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