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सोमवार, अगस्त 11, 2025

रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Seventh Sarg Bhaag 5

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित रश्मिरथी के सप्तम सर्ग का यह भाग अत्यंत मार्मिक, वीर रस और करुण रस से ओतप्रोत है। इसमें महाभारत के उस निर्णायक क्षण का चित्रण है जब रथ का चक्र कीचड़ में धंस जाता है और युद्धभूमि में कर्ण असहाय हो जाता है। यह वह क्षण है जब उसकी वीरता, उदारता और भाग्य तीनों एक जगह खड़े होकर उसका इम्तिहान ले रहे होते हैं।

रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Seventh Sarg Bhaag 5

दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर,
गरजा सहसा राधेय, न जाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर ।
‘सामने प्रकट हो प्रलय ! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊंगा,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा ।’

‘क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं ।
छुट्टी पाऊ, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं ।
ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां ।’

‘हो शास्त्रीं का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे,
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे,
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्ततनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन ।’

‘संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो ।
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण ।’

समझ में शल्य की कुछ भी न आया,
हयों को जोर से उसने भगाया ।
निकट भगवान्‌ के रथ आन पहुंचा,
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?

अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है ।
न जानें न्याय भी पहचानती है,
कुटिलता ही कि केवल जानती है?

रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका,
अबाधित दान का आधार था जो,
धरित्री का अतुल श्रूडगार था जो,

क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?
रुधिर के पडक में रथ को जकड़ क़र,
गयी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र ।

लगाया जोर अश्वो ने न थोडा,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोड़ा ।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा लाचार हो उसने रथी से ।

‘बड़ी राथेय ! अद्भुत बात है यह ।
किसी दुःशक्ति का ही घात है यह ।
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है;’

‘निकाले से निकलता ही नहीं है,
हमारा जोर चलता ही नहीं है,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो ।’

हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,
कहा, ‘हां सत्य ही, सारे भुवन में,
विलक्षण बात मेरे ही लिए है,
नियति का घात मेरे ही लिए है ।

‘मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से,
निकाले कौन उसको बाहुबल से ?’

उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,
लगा ऊपर उठाने जोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके ।

मही डोली, सलिल-आगार डोला,
भुजा के जोर से संसार डोला
न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था,
चला वह जा रहा नीचे धंसा था ।

विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,
जगा कर पार्थ को भगवान्‌ बोले _
‘खडा है देखता क्या मौन, भोले ?’

शरासन तान, बस अवसर यही है,
घड़ी फ़िर और मिलने की नहीं है ।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे ।’

श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,
विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन ।

‘नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?’
हंसे केशव, ‘वृथा हठ ठानता है ।
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?’

‘कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह ।
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह ।
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फंसेगा,
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा ।’

भला क्यों पार्थ कालाहार होता ?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?
सभी दायित्व हरि पर डाल करके,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके,

लगा राधेय को शर मारने वह,
विपद्‌ में शत्रु को संहारने वह,
शरों से बेधने तन को, बदन को,
दिखाने वीरता निःशस्त्र जन को ।

सप्तम सर्ग का यह भाग रश्मिरथी की आत्मा है। यह कर्ण के जीवन की त्रासदी, उसके वीरता के अंत, और महाभारत की उस नीति का सजीव चित्रण है जिसमें विजय ही परम धर्म बन जाती है। दिनकर जी की यह कविता केवल महाकाव्य नहीं, बल्कि उस महानायक की शोकगाथा है जो सूर्य पुत्र होते हुए भी अंततः पृथ्वी में समा जाता है।

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