“रश्मिरथी” के चतुर्थ सर्ग का यह पाँचवाँ भाग कर्ण के अंतरद्वंद्व, वेदना, और जीवन-दर्शन का अत्यंत भावपूर्ण व आत्मवेदना से भरा हुआ संवाद है। यह भाग महाभारत के नायक कर्ण के चरित्र को अत्यधिक गहराई और मानवीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है।

रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 5
‘जन्मा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,
परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,
द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया
बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया।
‘और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में,
आया है बन विप्न सामने आज विजय के मग मे।
ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था,
हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था।
‘सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,
नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ।
मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है,
खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है।
‘और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है।
तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है,
समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,
सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया।
‘जिससे मिलता नहीं सिद्व फल मुझे किसी भी व्रत का,
उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का।
गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,
किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं।
‘जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?
मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,
देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,
दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!
‘फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,
एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है।
स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,
जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है।
‘वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,
नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है।
वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में,
बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।
‘वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,
दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये।
पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है,
बल से अंधड़ को धकेल वह आगे चल सकता है।
‘वह करतब है यह कि युद्व मे मारो और मरो तुम,
पर कुपंथ में कभी जीत के लिये न पाँव धरो तुम।
वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,
विजय-तिलक के लिए करों मे कालिख पर, न लगाओ।
‘देवराज! छल, छ, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ,
मैं केवल आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,
जिन्हें नही अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को,
धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को।
‘मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा,
‘नीचवंशजन्मा’ कहकर जिनको जग धिक्कारेगा।
जो समाज के विषम वहि में चारों ओर जलेंगे,
पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे।
‘मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग; कितु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।
‘मैं उनका आदर्श, कितु, जो तनिक न घबरायेंगे,
निज चरित्र-बल से समाज मे पद-विशिष्ट पायेंगे,
सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी उन्हें देख नत होगा,
धर्म हेतु धन-धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा।
श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेगे
सुख क लिए पाप से जो नर कभी न सन्धि करेंगे,
कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना,
जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना।

1. जन्म, संघर्ष और पीड़ा का विषाद
“जन्मा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में…”
यहाँ कर्ण अपने अस्पष्ट जन्म और सूतवर्ग में पालन-पोषण को याद करता है। वह कहता है कि जन्म की जानकारी नहीं, लेकिन समाज ने उसे सूतपुत्र कहकर तिरस्कार दिया। द्रोणाचार्य ने जब शस्त्र-विद्या सिखाने से इनकार किया, तब वह परशुराम की शरण गया, परंतु वहाँ भी छल का आरोप लगाकर उसे शाप मिला।
2. दानवीरता और धोखा
“और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में…”
कर्ण अपने दान के कारण प्रसिद्ध हुआ। लेकिन वही दान उसके लिए आज शत्रु बनकर सामने खड़ा है — क्योंकि उसी दान के कारण वह कवच-कुंडल से वंचित हुआ, जो उसे युद्ध में रक्षा दे सकते थे। वह कहता है कि क्या यही ब्रह्मा की योजना थी कि यज्ञ में उसे स्वयं ही जलना पड़े?
3. नियति का अन्याय और संघर्ष
“सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ…”
यहाँ कर्ण नियति से प्रश्न करता है — क्यों उसके जीवन में केवल विपत्तियाँ आईं? अगर यह पूर्व जन्म के पापों का फल है, तो फिर कवच-कुंडल क्यों दिए गए? कर्ण यहाँ विधाता की माया पर शंका करता है।
4. निष्फलता और व्यर्थता की अनुभूति
“गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं…”
कर्ण कहता है कि उसने अच्छे कर्म किए, फिर भी सुख नहीं पाया। व्रतों का फल नहीं मिला, धर्म का प्रभाव उल्टा पड़ा। जीवन के सारे संघर्ष उसके लिए निष्फल प्रतीत हो रहे हैं।
5. प्रकृति का उद्देश्य और कर्ण का आत्मबोध
“जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?…”
कर्ण कहता है कि शायद उसका जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह दुनिया को कुछ नया संदेश दे। उसका जीवन केवल दुखों से लड़ने के लिए बना है। इसमें वीरता, करुणा और धैर्य का संगम है।
6. नायकत्व और प्रेरणा का स्वर
“फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है…”
कर्ण कहता है कि उसका जीवन व्यर्थ नहीं है। वह विश्व के लिए एक संदेश लाया है: कि मनुष्य चाहे जितने भी कष्ट सहे, अगर वह वीर है तो नियति को भी बदल सकता है।
7. आदर्श पुरुष की परिभाषा
“वह करतब है यह कि युद्व मे मारो और मरो तुम…”
यहाँ कर्ण आदर्श मनुष्य का चित्र खींचता है:
- जो छल-कपट नहीं करता,
- सत्य के लिए लड़ता है,
- भले ही मरे पर अधर्म से न समझौता करता है,
- जो कष्टों से डरता नहीं।
8. दलित, वंचित और संघर्षशील समाज के प्रतिनिधि
“मैं उनका आदर्श, जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा…”
कर्ण कहता है कि वह उन लोगों का आदर्श है जिन्हें समाज ‘नीच’ समझता है, जिनका कोई अभिभावक नहीं होता, जो केवल अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ते हैं। वह उनके लिए आदर्श बनकर आया है।
9. तपस्वी नायक की उद्घोषणा
“कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना…”
अंततः कर्ण कहता है कि उसका धर्म होगा —
- बलिदान देना,
- सत्य पर अडिग रहना,
- पाप से समझौता न करना,
- तेज से जीना और उसी तेज से मरना।