‘रश्मिरथी’ के चतुर्थ सर्ग के तीसरे भाग का उल्लेख किया है, जो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित महाकाव्य का अत्यंत भावनात्मक और विचारशील अंश है। यह खंड उस महत्वपूर्ण प्रसंग को प्रस्तुत करता है, जिसमें इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच और कुण्डल दान में माँगते हैं।
नीचे इसका विस्तृत विश्लेषण, भावार्थ और प्रसंग के महत्त्व को प्रस्तुत किया गया है:

रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 3 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 3
गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।
नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,
प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।
आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,
कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।
लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं।
सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।
ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा।
स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा।
कितु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,
उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है।
अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,
किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।
कहा कर्ण ने, वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,
जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं।
विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,
बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।
महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,
किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है।
और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,
जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं।
आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?
अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?
अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,
सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे।
मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,
कभी-कभी डोलता समर में किचित वीर-हृदय भी।
डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,
सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा।’
भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,
धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी।
ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,
महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।
मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,
अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से।
क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,
और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।
कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,
मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा।
कितु आपकी कीतिं-चाँदनी फीकी हो जाएगी,
निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी।
है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को,
प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को,
सब कोसेंगें मुझे कि मैने पुण्य मही का लूटा,
मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा।
अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ।
बोल उठा राधेय, ‘आपको मैं अद्भुत पाता हूँ
सुर हैं, या कि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हैं,
समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं।
भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे,
जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभिलाषा त्यागेंगे?
गो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दिलवा दूँ,
इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढा दूँ।
या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,
तो भी वचन तोड़कर हूँगा नहीं विप्र का द्रोही।
चलिए साथ चलूँगा मैं साकल्य आप का ढोते,
सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते।
वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है,
कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?
विप्रदेव! मँगाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,
मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी ‘नाहीं’।

प्रसंग परिचय
महाभारत युद्ध के पूर्व, देवता इंद्र जानते थे कि कर्ण के पास उसका कवच और कुण्डल हैं जो उसे अजेय बनाते हैं। वे चाहते थे कि कर्ण को इनसे वंचित कर दिया जाए ताकि अर्जुन उसे युद्ध में मार सके। इसलिए इंद्र ब्राह्मण के वेश में आते हैं और दानवीर कर्ण से इन अमूल्य वस्तुओं को माँगते हैं।
श्लोकानुसार व्याख्या:
१. विप्र का आगमन और कर्ण की कीर्ति की प्रशंसा:
गिरा गहन सुन चकित… त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।
- यह वर्णन है जब इंद्र, ब्राह्मण रूप में, लता की ओट से प्रकट होते हैं।
- वे कर्ण की दानशीलता की अत्यंत प्रशंसा करते हैं।
- कहते हैं, त्रिलोक में आपके जैसा दानी कोई नहीं।
नहीं फिराते एक बार… सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।
- ब्राह्मण बताते हैं कि कर्ण की वाणी सदा सत्य और प्रभावी होती है।
- लोग उसे कार्यवाचक (क्रियाशील, निश्चल) मानते हैं।
२. कर्ण की तुलना पूर्व दानवीरों से और उसकी निडरता का वर्णन:
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद… हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।
- कर्ण को शिवि, दधिचि, प्रह्लाद जैसे महान दानियों की श्रेणी में रखा गया है।
- वह प्राण भी न्योछावर कर सकता है, यदि उसने वचन दे दिया हो।
ऐसा है तो मनुज-लोक… मिट्टी पर आएगा।
- यदि कर्ण जैसे दानी पृथ्वी पर हैं तो स्वर्ग को भी याचना करनी पड़ेगी।
३. भाग्य और पुरुषार्थ पर विचार:
कितु भाग्य है बली… नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।
- यहाँ इंद्र (विप्र) भाग्य की महत्ता बताते हैं।
- वे कहते हैं कि मात्र अभिलाषा से कुछ नहीं मिलता, भाग्य भी चाहिए।
कहा कर्ण ने… बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।
- कर्ण भाग्य को नहीं, बल्कि पुरुषार्थ को श्रेष्ठ मानता है।
- वह कहता है कि विधि का लेखा भी पुरुषार्थ से बदला जा सकता है।
४. विप्र से सीधा संवाद और दान की प्रतिज्ञा:
अच्छा, अब उपचार छोड़… वही हम देंगे।
- कर्ण सीधे पूछता है कि विप्र क्या माँगेंगे — वह हर हाल में देगा।
मही डोलती… वचन हमारा।
- कर्ण स्पष्ट करता है कि दुनिया हिल सकती है, पर उसका वचन अडिग है।
५. विप्र की संकोचपूर्ण बात और मनोवैज्ञानिक द्वंद्व:
मैं सब कुछ पा गया… एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।
- विप्र यह जताता है कि वह जो माँगना चाहता है, उससे कर्ण संकट में पड़ सकता है।
- वह यह भी कहता है कि यदि कर्ण वचन नहीं निभा पाए तो उसकी कीर्ति धूमिल होगी।
है सुकर्म, क्या संकट में डालना… अभंग प्रण महाराज का टूटा।
- विप्र खुद को अपराधी महसूस कर रहा है कि कहीं वह कर्ण की वचनबद्धता को तोड़वाने वाला न बन जाए।
६. कर्ण की अंतिम प्रतिज्ञा और पूर्ण समर्पण:
बोल उठा राधेय… आप नर हैं या योनि इतर हैं।
- कर्ण विप्र की रहस्यमयता से चकित होता है — क्या ये देव हैं?
गो, धरती, धन… पद पर यहीं चढा दूँ।
- वह कहता है कि पृथ्वी की सारी संपत्ति तो क्या, अपना शीश तक काट कर दे सकता है।
या यदि साथ लिया चाहें… चरणों को धोते-धोते।
- यदि विप्र चाहे, तो कर्ण अपनी सारी आयु उनके सेवक बनकर बिता देगा।
वचन माँग कर नहीं… यदि एक बार भी ‘नाहीं’।
- कर्ण की यह पंक्ति उसकी अत्यंत चरम दानशीलता का प्रतीक है।
- वह कहता है कि ‘ना’ कहना मेरे लिए मृत्यु समान है।