रश्मिरथी द्वितीय सर्ग का भाग 2 दिनकर की विलक्षण काव्यदृष्टि का परिचायक है, जिसमें वे एक साथ आश्चर्य, श्रद्धा, वीरता और तप का संयोजन करते हैं। इस अंश में आश्रम के दृश्य को देखकर एक सामान्य व्यक्ति के मन में उठने वाले प्रश्नों और विचारों की प्रस्तुति है। यह भाग केवल परशुराम की पहचान का विवरण नहीं है, बल्कि शस्त्र और शास्त्र के अद्वितीय सामंजस्य का महाकाव्यात्मक चित्रण है। यह उस युग का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ धर्म, तप और युद्ध एक-दूसरे के पूरक थे। परशुराम की उपस्थिति कर्ण के जीवन के उस मोड़ की भूमिका है जहाँ वह धर्म, शिक्षा और शौर्य का संगम अनुभव करता है।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 2 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 2
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्र-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?
आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्व-यन्त्र अथवा शास्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?
परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खङ्ग ही करता है।
किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।
हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।