रश्मिरथी” प्रथम सर्ग, भाग 6 रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कालजयी कृति का एक महत्वपूर्ण अंश है, जिसमें कर्ण के रंगभूमि में आगमन के बाद उत्पन्न राजनीतिक, सामाजिक और भावनात्मक तनावों को दर्शाया गया है।
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 6 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag 6
लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विकल पुकार उठी, जय महाराज अंगेश।
‘महाराज अंगेश!’ तीर-सा लगा हृदय में जा के,
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।
‘हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?’
दुर्योधन ने कहा-भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।
सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,
जन्मे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।
कृपाचार्य आ पढ़े बीच में, बोले ‘छिः! यह क्या है?
तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।’
रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए ‘पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?

आइए इस अंश की पंक्ति-दर-पंक्ति व्याख्या और भावार्थ के माध्यम से विस्तार से समझते हैं:
पंक्ति 1-2:
लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
इन पंक्तियों में वर्णन है कि जैसे ही कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित किया गया, लोगों ने उसका पूजन करना आरंभ कर दिया। कर्ण के मस्तक पर कुंकुम लगाया गया और कमल के फूलों से उसका स्वागत किया गया। रंगभूमि (जहाँ योद्धा अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हैं) चारों ओर से आनंद, उल्लास और रोमांच से भर उठी। “पुलकाकुल कलकल” शब्द यहाँ भीड़ की उत्साहित आवाज़ और रोमांच का सूचक है।
पंक्ति 3-4:
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विकल पुकार उठी, जय महाराज अंगेश।
जब कर्ण ने सम्मानपूर्वक अपना सिर झुकाकर जनसमूह को नमस्कार किया, तब जनता भावविह्वल होकर “जय महाराज अंगेश” का उद्घोष करने लगी। “अंगेश” अर्थात् अंग देश का राजा। यह विजयघोष जनसमर्थन और सम्मान का प्रतीक है।
पंक्ति 5-6:
‘महाराज अंगेश!’ तीर-सा लगा हृदय में जा के,
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।
यह दृश्य देखकर भीम के हृदय में ईर्ष्या और आक्रोश उत्पन्न हुआ। जब उन्होंने जनता को कर्ण के लिए “महाराज अंगेश” कहते सुना, तो यह वाक्य उनके हृदय में तीर की तरह चुभ गया। क्रोध में तमतमाए भीम कुछ सोच नहीं पाए और आवेश में प्रतिक्रिया दी।
पंक्ति 7-8:
‘हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?’
भीम ने व्यंग्य किया कि कर्ण जैसे सूत-पुत्र (रथ चालक के पुत्र) का कार्य तो घोड़े की पूँछ झाड़ना ही रहा है। वह कैसे राज्य का संचालन करेगा? यह एक घोर जातिगत अपमान था, जिससे उस समय की सामाजिक मानसिकता और ऊँच-नीच की भावना भी झलकती है।
पंक्ति 9-10:
दुर्योधन ने कहा-भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
भीम की कटु और नीच टिप्पणी पर दुर्योधन ने क्रोधित होकर उत्तर दिया। उसने कहा कि भीम अपने को धर्मज्ञ कहते हैं, परन्तु हृदय में ईर्ष्या और द्वेष भरे हुए हैं। तुम्हारी बातों में कोई सच्चाई नहीं है, केवल अपमान है।
पंक्ति 11-12:
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।
दुर्योधन ने आगे कहा कि वंश और कुल से कुछ नहीं होता, यदि व्यक्ति के कर्म और चरित्र गलत हों। किसी मनुष्य की पहचान उसके कर्म, गुण और उज्ज्वल चरित्र से होती है न कि उसकी जाति, वंश या धन से।
पंक्ति 13-14:
सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,
जन्मे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?
दुर्योधन ने भीम पर कटाक्ष करते हुए कहा कि कर्ण ने ठीक ही प्रश्न किया था — अर्जुन तुम कौन हो? तुम्हारा जन्म कैसे हुआ? यदि स्वयं की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, तो दूसरों की जाति या वंश पर प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं है।
पंक्ति 15-16:
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।
दुर्योधन ने यह भी कहा कि मनुष्य दूसरों के दोष तो देख लेता है, पर अपने अवगुण नहीं देखता। यही इस दुनिया का हाल है खुद के माथे पर लिखा सत्य भी दिखाई नहीं देता।
पंक्ति 17-18:
कृपाचार्य आ पढ़े बीच में, बोले ‘छिः! यह क्या है?
तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
इस वाद-विवाद को रोकने के लिए कृपाचार्य बीच में आ गए। उन्होंने घृणा और निंदा करते हुए कहा “छिः! यह क्या हो रहा है? क्या तुम लोगों में थोड़ी भी लज्जा या मर्यादा शेष नहीं बची?”
पंक्ति 19-20:
चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।
कृपाचार्य ने सभी को शांत करते हुए कहा कि अब शाम हो गई है, सभी लोग थक चुके होंगे। अब विवाद नहीं, विश्राम करने का समय है।
पंक्ति 21-22:
रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
इसके बाद रंगभूमि से नगरवासी हर्षोल्लास के साथ लौटने लगे। कुछ लोग कर्ण की प्रशंसा कर रहे थे, तो कुछ अर्जुन की। इस प्रकार वहाँ की जनता दोनों महान योद्धाओं के गुणों पर चर्चा करती हुई लौट रही थी।
पंक्ति 23-24:
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए ‘पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?’
गुरु द्रोण अर्जुन को लेकर सबसे अलग हो गए। वे अर्जुन से कहते हैं “पार्थ! यह कौन नया राहु आ गया है?” यहाँ “राहु” शब्द से तात्पर्य है किसी संकट या चुनौती से। गुरु द्रोण इस बात को समझ चुके हैं कि कर्ण अब अर्जुन के लिए एक गंभीर प्रतिद्वंदी बन चुका है।
इस अंश में कर्ण का गौरवशाली आगमन, भीम का जातिवादी अपमान, दुर्योधन का न्यायपूर्ण प्रतिवाद, और गुरु द्रोण की चिंता — इन सभी घटनाओं के माध्यम से महाभारत के सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक संघर्षों का चित्रण हुआ है।
यह भाग यह भी स्पष्ट करता है कि जाति से नहीं, गुण से महानता मिलती है, और सत्तात्मक प्रतिष्ठा कभी-कभी विवादों को जन्म देती है।
यहाँ कर्ण के लिए उठे जनसमर्थन और विरोध दोनों पक्षों के भावों का सामंजस्यपूर्ण, परन्तु तीव्र चित्रण दिनकर ने अत्यंत प्रभावशाली भाषा में किया है।