Guru Ashtakam
गुरु अष्टकम्(Guru Ashtakam), आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। यह स्तोत्र शिष्य और गुरु के संबंध की गहराई और गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा को व्यक्त करता है। “अष्टकम्” का अर्थ है आठ श्लोकों का समूह। इसलिए, गुरु अष्टकम् में आठ श्लोक हैं जो गुरु की महिमा और उनके जीवन में महत्व को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।
गुरु का महत्व Guru Ashtakam Importance
गुरु को भारतीय परंपरा में ईश्वर का स्थान दिया गया है। वे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। गुरु शिष्य को आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। गुरु अष्टकम् में भी इस विचार को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है।
गुरु अष्टकम् का सार
गुरु अष्टकम् के श्लोक बताते हैं कि यदि व्यक्ति के पास सांसारिक सुख-सुविधाएं, धन, वैभव, और प्रतिष्ठा है, लेकिन यदि वह गुरु के प्रति श्रद्धालु नहीं है, तो वह सब व्यर्थ है। आदि शंकराचार्य ने इस स्तोत्र के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि सांसारिक संपत्ति और ऐश्वर्य का कोई अर्थ नहीं है यदि व्यक्ति में गुरु के प्रति आदर और समर्पण की भावना नहीं है।
श्लोकों का विवरण
गुरु अष्टकम् में प्रत्येक श्लोक गुरु की महिमा को अलग-अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस प्रकार सांसारिक जीवन की मोह-माया में फंसे रहना व्यर्थ है। गुरु के प्रति सच्ची निष्ठा और श्रद्धा ही मानव जीवन का असली उद्देश्य है।
गुरु अष्टकम् Guru Ashtakam
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं,
यशश्र्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादि सर्वं,
गृहं बान्धवा सर्वमेतद्धि जातम।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
षडंगादि वेदो मुखे शास्त्र विद्या,
कवित्वादि गद्यम, सुपद्यम करोति।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचार वृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
क्षमामण्डले भूप भूपाल वृंन्दः
सदा सेवितं यस्य पादारविंदम।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापा
जगद्धस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
न भोगे न योगे न वा वाजीराजौ,
न कांता मुखे नैव वित्तेशु चित्तं।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे,
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे,
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
गुरु अष्टकम्, शिष्य और गुरु के बीच के पवित्र संबंध की गहराई को उजागर करता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि सांसारिक भौतिक सुख-सुविधाएं केवल अस्थायी हैं, और आत्मज्ञान और मोक्ष के लिए गुरु के प्रति निष्ठा और श्रद्धा अत्यंत आवश्यक है। आदि शंकराचार्य का यह स्तोत्र हमें आत्मा की शुद्धि और जीवन के असली उद्देश्य को समझने का मार्ग दिखाता है।
यदि आप गुरु अष्टकम् का पाठ और अर्थ समझकर उसका अनुसरण करेंगे, तो यह आपके जीवन को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकता है।